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Tuesday, December 21, 2010

राशी फल वर्ष 2011.....!!

वर्ष 2011 में कैसी होगी ग्रहों की चाल ? इसका क्या होगा आपके जीवन पर प्रभाव ? आइये जानते है आपकी राशि और जीवन पर क्या प्रभाव डालते है तारे....!!! 

मेष:   
मेष राशि के जातको के लिए व्‍यवसायिक दृष्टि से उत्तम वर्ष 2011 में व्यापर अच्छा चलेगा और लाभपूर्ण होगा। वैवाहिक जीवन में कलह हो सकती हैं, जीवन-साथी का सहयोग करे व सौम्य रहे | धार्मिक कार्यों में प्रवित्ति होगी। इस वर्ष  स्‍वास्‍थ्‍य संबंधी समस्या हो सकती हैं सावधान रहें। पारिवारिक कलह होने की संभावना है। आय के स्रोत बढ़ेंगे। संतान की ओर से कस्ट मिलेगा । विदेश यात्रा से धन लाभ की संभावना रहेगी। वर्ष के अंत में व्यापार में उत्तम धन लाभ के योग है। नौकरी पेशा लोगो को तनाव की इस्थिति आ सकती हैं। आर्थिक पक्ष कमज़ोर होगा। तनाव ना ले,सयम से काम ले | वर्ष के अंत तक परिवार से शुभ समाचार मिलेंगे।

वृष:
वृष राशि के जातको के लिए २०११ मिले जुले प्रभाव वाला वर्ष होने वाला है | इस वर्ष की शुरुआत शुभ समाचार से होने की आशा है और अंत तनावपूर्ण हो सकता है। छात्रों- विद्यार्थियों को सफलता के लिए कड़ी मेहनत करनी होगी। इस वर्ष नौकरी पेशे वालों की नौकरी में अढ़चन आ सकती है, अत: सावधान रहे । माता के स्‍वास्‍थ्‍य की समस्या भी तनाव देगी। आय के स्रोत बढ़ेंगे। वर्ष के उत्तरार्ध में व्यापार में अच्छे - बड़े लाभ मिल सकते हैं। आपके विरोधी आपके काम बिगाड़ने के प्रयास भी करेंगे किन्तु निष्प्रभावी होंगे। आर्थिक विवाद और मुकदमों में जीत मिलने की संभावना हैसाल के मध्‍य में परेशानियां आ सकती हैं। 

मिथुन: 
मिथुन राशि के जातको के लिए वर्ष 2011 काफी तनाव भरा रह सकता है। वर्ष के आरम्भ में आय के साधन बढ़ेंगे| दबाव में लिए गए निर्णय से विफलता और आर्थिक क्षति का सामना करना पड़ सकता है। शत्रु हानि पहुंचाने के प्रयास करेंगे । संतान व परिवार की आवशकता पर धन खर्च होगा । जीवनसाथी का खराब स्‍वास्‍थ्‍य चिंता का कारण होगा । घरेलू खर्च में वृद्धि से चिन्ता बढ़ेगी। मित्रों से वाद - विवाद व तनाव के योग है। लेकिन आर्थिक पक्ष मजबूत होगा। कानून और न्याय नीति का फैसला आपके पक्ष में होगा। छात्रों का पढ़ाई से मन विचलित हो सकता है परिश्रम से शिक्षा प्रतियोगता के क्षेत्र में सफलता मिलेगी। 
कर्क: 
 कर्क राशि वालों के लिए वर्ष २०११ के प्रारंभ में पदोन्‍नति की संभावना बनेगी। महेनत पराक्रम से सामाजिक लाभ व प्रतिष्ठा प्राप्त होगी । शत्रुओं पर विजय मिलेगी और पारिवारिक सुख बढ़ेगा।  सकारात्‍मक विचार से स्वयं में परिवर्तन महसूस होगा | वर्ष के मध्य में व्‍यवसायिक प्रतिद्वंद्वी बढ़ेंगे, व्‍यवसाय में बड़ा लाभ मिलने की संभावना रहेगी। छात्रों के लिए भी अच्‍छा समय रहेगा। नए अवसर प्राप्‍त होंगे। व्यवसाय में मेहनत का फल मिलेगा। परिजनों का सहयोग प्राप्‍त होगा। वाहन प्राप्ति का उत्तम योग। सार्वजनिक और पारिवारिक जीवन में यश - कीर्ति, पद प्रतिष्ठा  की प्राप्ति होगी। कोई बड़ा खर्च आपकी चिंता बढ़ा सकता है। बिगड़े काम बनेंगे।  व्यापार विस्तार की योजना पर काम करेंगे |
सिंह: 
इस नव वर्ष में आपको नई व महत्व्यपूर्ण जिम्‍मेदारियां निर्वहन करनी है । यह वर्ष आपके लिए काफी सकारात्‍मक होगा। कर्येषेत्र के विस्तार आथवा नए कार्य आरंभ का उत्तम अवसर मिलेगा। स्‍वास्‍थ्‍य अच्‍छा रहेगा, लेकिन मानसिक तनाव व चिंता बनी रहेंगी।  नौकरी पेशे वालों को अच्‍छे अवसर मिलने की संभावना है। नौकरी बदलने का यह सही समय रहेगा। यात्रा से लाभ मिलेगा जिससे निकट भविष्य में लाभ मिलने की संभावना है। वर्ष के अंत में धनहानि हो सकती है, या फिर अनावश्‍यक खर्च आ सकता है, अत: धनसंचय करे |  मित्रो  के कारण गंभीर समस्या का सामना करना पड़ सकता है | जिससे आप अपने संपर्क और पराक्रम से ही निकल पाएंगे |

कन्‍या: 
कन्‍या राशि वाले जातको के कई रुके हुए अपूर्ण कार्य सिद्ध होंगे | वर्ष  की शुरुआत अच्‍छी रहेगी लेकिन पारिवारिक तनाव से उलझनें बढ़ सकती हैं। व्यापारिक  यात्राएं होंगी जिसमे नविन सम्बन्ध स्थापति होंगे। व्यवसाय की दृष्टि से वर्ष अच्छा रहेगा। पिता के स्वास्थ्य को कस्ट हो सकता है | पारिवारिक कलह हो सकती है। उत्तेत्जना और क्रोध पर नियंत्रण रखना अनिवार्य हैं। वर्ष के अंत तक आर्थिक मामलों में सुधार आएगा, सामाजिक छवि धूमिल हो सकती है | गंभीर आरोप - प्रत्यारोप , लांछन लग सकते हैं।  दबाव व क्रोध में कोई भी व्यापारिक या पारिवारिक महातव्यपूर्ण निर्णय लेने से बचे | संघर्षपूर्ण इस्थिति बनी रहेगी |
तुला: 
तुला राशि के जातको को इस वर्ष स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्या परेशान करेगी, अत:सावधान रहे |  वर्ष की शुरुआत में घरेलू उलझने बढ़ सकती हैं। आकस्मिक धनलाभ या बकाये धन की प्राप्ति हो सकती है । विदेश यात्रा के उत्तम योग। दांपत्‍य जीवन में कलह हो सकती है। वर्ष के मध्‍य में शुभ समाचार मिलेंगे। धन अधिक खर्च होगा। नौकरी पेशे वालो की जिम्‍मेदारियां व समस्या बढ़ सकती हैं, उच्चाधिकारी की नाराज़गी झेलनी पड़ सकती है। धार्मिक कार्यों में रचि बढ़ेगी। कारोबार में विस्‍तार होने की भी संभावना है। कार्यक्षेत्र में हो रहे परिवर्तन हैरतअंगेज होंगे। वर्ष के अंत में भाग्योदय होगा। आय में वृद्धि, पदोनात्ति जैसे सुसमाचार की प्राप्ति होगी | 

वृश्चिक: 
वृश्चिक रा‍शि वाले जातको के लिए वर्ष 2011नई उर्जा का संचार करेगा। इस वर्ष समस्त रुके और बिगड़े कार्य सिद्ध होंगे | शिक्षा की दृष्टि से भी समय उत्तम रहेगा। सकारात्‍मक सोच के साथ किए गए कार्यों में सफलता मिलेगी।  कटु संबंधो में मधुरता आएगी। विवाह के उत्तम योग है और दांपत्‍य जीवन भी काफी सुखमय रहेगा। किसी के विवाद में हस्तक्षेप न करे , क्रोध और उत्तेत्जना पर नियंत्रण रक्खे | भावना के आवेग में कोई निर्णय न ले। व्यापारिक ऋण की इस्थ्ती भी बनती है जो जल्दी ही समाप्त हो जाएगी | कार्यक्षेत्र में नए अवसर प्राप्त होने से उत्साह बढेगा | व्यापारिक शत्रु  क्षति पहुचाने का प्रयास करेंगे और शत्रुता बढ़ेगी। 

धनु:
धनु राशि वाले जातको को वर्ष के प्रारंभ में कोई बड़ा व्यापारिक अनुबंध से शुरुआत में ही अच्छे लाभ होने की संभावना है | यात्रा से लाभ होगा और नए व्यापारिक अनुबंध प्राप्त होंगे।  मांगलिक उत्सव में शामिल होने के अवसर बनेंगे | आर्थिक पक्ष मजबूत होगा | पारिवारिक ज़िम्मेदारी का भली भाति निर्वहन करेंगे | परिजनों - मित्रों से वैचारिक मतभेद भी संभव है। व्यापार में कुछ गिरावट आ सकती है | शेयर बाज़ार में निवेश लाभ देगा |  स्‍वास्‍थ्‍य का ध्‍यान रखें।शुभ कार्य सम्पन्न होंगे। मित्रों की सहायता से अधूरे कार्य सिद्ध होंगे |

मकर:
 शत्रु  व रोग से सावधान रहकर काम के प्रति पूरा समर्पण रखें, आर्थिक पक्ष सुदृढ़ होगा जिससे आपको अच्छा लाभ मिलेगा। अनावश्यक दवाब लेने से बचे। धार्मिक यात्रा से मानसिक शांति मिलेगी। वर्ष की शुरुआत में आय में वृद्धि व पदोन्नति के अवसर बनेंगे। कार्यक्षेत्र के साथ-साथ निजी संबंधों में सफलता का अवसर बनेगा।पारिवारिक उलझनों से मन अशांत रहेगा। पुराने मित्रों से मिलने के अवसर प्राप्त होंगे ।कुटुंब में संपत्ति विवाद गहरा सकता है | संतान प्राप्ति के उत्तम योग बनते है | इस वर्ष में परिवार के स्वास्थ्य पर व्यय की संभावना है। कार्यो में बाधा से कार्य सिद्धि में विलम्ब होगा |
कुंभ: 
 यह वर्ष आप के जीवन में अनेक उपलब्धियो  का वर्ष होगा | सफलता आपके कदम चूमेगी | पारिवारिक सुख उत्तम होगा | आपको लाभ प्राप्ति के शुभ अवसर मिलेंगे।  आर्थिक लाभ बढ़ेंगे और मन भी शांत रहेगा। नौकरी पेशा लोगो को पदोन्नति की संभावना है। भवन, भूमि, वाहन, प्राप्ति के उत्तम योग है | वैवाहिक बंधन में बंध सकते है | साल के शुरुआती कुछ  महीने काफी महत्वपूर्ण हैं। माता, पिता, गुरु की सेवा आप को फलित होगी | धार्मिक कार्यो में रूचि लेंगे| सामाजिक प्रतिष्ठा व वर्चस्व्य में वृद्धि होगी | अध्यन अध्यापन का उत्तम योग है |

मीन: 
मीन राशि के जातको के लिए नव वर्ष नव उर्जा ले कर आएगा | समस्त रुके हुए और अपूर्ण कार्य पूर्ण होंगे। समाज सेवा व जनकल्याण के प्रति भी आप कुछ अवश्य करेंगे | वर्ष के प्रारंभ में समस्त बाधाओं के बाद समस्याओ का निदान मिलेगा और धन की प्राप्ति होने आर्थिक समस्या का निदान होगा । चोट - चपेट, दुर्घटना के भी योग बनते है अन्यथा वाहन प्रयोग में सावधानी बरतें व गति पर नियंत्रण रक्खे । शत्रु हावी होने का और हानि पहुंचाने का प्रयास करेंगे पर परास्त होंगे । शारीरिक कस्ट व ख़राब स्वास्थ्य चिंता का विषय होगा। व्यवसायिक सफलता मिलने की संभावना है। पारिवारिक कलह से मानसिक चिंता रहेगी। राजनितिक सफलता के मार्ग प्रशस्त होंगे | सामाजिक वर्चस्व में वृद्धि होगी | सुख समृद्धि के नए रास्ते खुलेंगे। प्रशाशनिक पक्ष के सहियोग से कठिन कार्य सिद्ध होगा |  कुछ आर्थिक कारणों से योजनाओं में अड़चनें भी आ सकती हैं |

4 जनवरी 2011 को सूर्य ग्रहण के प्रभाव व निवारण के उपाय....!!

हिन्दू सनातन परम्परा में जिस प्रकार ज्योतिष को एक विशेष स्थान प्राप्त है जो इस सृष्टी के कण कण में व्याप्त एक एक अणु में होने वाले लघु परिवर्तन को भी प्रभावित और नियंत्रित करता है तो वही जब ब्रह्माण्ड में होने वाली कोई बड़ी या छोटी खगोलीय घटना कैसे इससे बच सकती है और जब बात ग्रहण की हो चाहे वो सूर्य ग्रहण हो या चन्द्र ग्रहण उसका अलग स्थान है और होना भी चाइए | जब इस सम्पूर्ण सृष्टी को प्राण दायनी उर्जा देने वाला पिंड वह उर्जा स्तोत्र खुद ही ग्रहण में हो तब हमारी ये सृष्टी या मानव जाति उसके दुश प्रभाव से कैसे बच सकती है ? इस ब्रह्माण्ड में होने वाले हर एक बदलाव का प्रभाव सर्व प्रथम हमारी प्रकर्ति पर आता है जिससे मौसम में परिवर्तन आदि देखने में आते है तब कही जा कर मानव जीवन प्रभावित होता है | इस बार यह सूर्य ग्रहण मकर राशी पर है  जो 4 जनवरी 2011 के दिन नजर आयेगा | इस सूर्य ग्रहण की अल्प आकृ्ति ही नज़र आएगी क्यूंकि यह आंशिक ग्रहण होगा | यह ग्रहण यूं तो पृ्थ्वी पर दोपहर 12:10 से लेकर 4:37 मिनट तक रहेगा पर भारत में इसका सबसे पहला प्रभाव दिन के 4:37 मिनट पर प्रारम्भ होगा क्यूंकि यह आंशिक ग्रहण है तो अंत में जाते जाते इसका हल्का सा प्रभाव ही भारत पर होने वाला है | 


वर्ष 2011 में तीन सूर्य ग्रहण लगेगें, जो निम्न तिथियों में रहेगें.
4 जनवरी 2011 को आंशिक सूर्य ग्रहण.
01 जून 2011 को भी आंशिक सूर्य ग्रहण.
01 जूलाई 2011 को भी आंशिक सूर्य ग्रहण लगेगा.
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इस ग्रहण के प्रभाव में आने वाले मुख्य प्रदेश होंगे हरियाणा, दिल्ली,जम्मू-कश्मीर, उतराखण्ड,राजस्थान, पंजाब, गुजरात, उतर-प्रदेश के उतर-पश्चिमी भाग में दिखाई देगा | वही मुम्बई, मध्य-प्रदेश,  पूर्वी उतर-प्रदेश आदि ग्रहण के प्रभाव से मुक्त प्रदेश है |
जब हमारा यह उर्जा पिंड खुद संकट में हो तो हमारे लिए भी संकट की इस्थ्ती होती है जिससे अगर बचने का उपाय न किये जाये तो ग्रहण की नकारात्मक उर्जा हमारे जीवन को लम्बे समय तक प्रभावित कर सकती है | हमारे शास्त्रों में कुछ निश्चित नियम बताये गए है जिनका पालन कर हम ग्रहण के दुश प्रभाव से बच सकते है | ग्रहण का निश्चित सूतक अर्थात अशुद्ध समय होता है जो ग्रहण काल से पूर्व ही शुरू हो जाता है जिसमे भगवद भजन आदि ही करना चहिये | ग्रहण के स्पर्श से पूर्व के समय में स्नान, ग्रहण मध्य समय में होम और देव पूजन यहाँ ध्यान रहे की ग्रहण काल में देव पूजन में मूर्ति स्पर्श वर्जित है सिर्फ मानसिक पूजन आदि की ही आज्ञा है और ग्रहण के मोक्षकाल  में श्राद्ध और अन्न, वस्त्र, धनादि का दान और सर्व मुक्त होने पर स्नान करना चाहिए |
ग्रहण काल में सोना, भोजन करना, रोना- विलाप करना पूर्णता: निषिद्ध है | ग्रहण काल या सूतक कल में भगवद भजन, दान, जागरण आदि का ही महात्म शास्त्रों में वर्णित है | इस ग्रहण का सूतक काल 4 जनवरी को प्रात: 2 बजकर 37 मिनट पर प्रारम्भ हो जायेगा | सूतक काल में शिशु, बालकों, वृ्द्ध, रोगी व गर्भवती स्त्रियों को छोडकर अन्य लोगों को सूतक से पूर्व स्नान ध्यान से निर्वित्त हो भोजनादि ग्रहण कर लेना चाहिए जो शास्त्रोक्त व अनिवार्य है | तथा सूतक समय से पहले रसोई घर के भंडारगृह के सभी सूखे अन्न में कुशा रख देना श्रेयस्कर होता है उसके साथ साथ रसोई और भंडारगृह के प्रवेश द्वार पर थोडा सा गौ का गोबर लगाना भी लाभकारी है | गाय के गोबर में यह क्षमता है जो ग्रहण काल में उत्पन्न सूर्य के नकारात्मक प्रभाव को खाद्य पदार्थो को ख़राब करने से या दूषित होने बचाती है | ऎसा करने मात्र से हमारे खाद्य पदार्थ ग्रहण के दुश प्रभाव से अशुद्ध होने से बच जाते है |  
ग्रहण से पूर्व आम जनमानस किसी धार्मिक नदी, सरोवर, कुण्ड, तालाब आदि में स्नान कर दिनचर्या प्रारंभ करते है | शास्त्रों के अनुसार ग्रहण के अवसर पर धार्मिक नदी या जल से स्नान करना, दान करना या कोई भी साधना करना इश्वरीय कृपा दायक होता है |  स्नान के लिये प्रयोग किये जाने वाले जलों में समुद्र का जल स्नान के लिये सबसे श्रेष्ठ कहा गया है | ग्रहण में समुद्र, नदी के जल या तीर्थों की नदी में स्नान करने से पुन्य फल की प्राप्ति होती है | किसी कारण वश अगर नदी का जल स्नान करने के लिये न मिल पाये तो तालाब का जल प्रयोग किया जा सकता है | वह भी न मिले तो झरने का जल या वर्षा जल जिसे स्वाति जल भी कहते है, लेना चाहिए | इसके बाद भूमि में स्थित जल को स्नान के लिये लिया जा सकता है | यदि कही जा पाना संभव नहीं तो घर में ही स्नान के जल में कोई भी तीर्थ जल मिला कर स्नान करे | ग्रहण के समय धारण किये हुए वस्त्र आदि को ग्रहण के पश्चात धोकर व शुद्ध करके ही धारण करने का विचार है | ग्रहण काल में निंदा करना, अनर्गल प्रलाप करना सर्वथा वर्जित है | इश्वरीय चर्चा अर्थात सत्संग आदि ही करे |

सूर्यग्रहण मे मंत्र जाप
पंचाक्षरी मंत्र - ॐ नम: शिवाय ।।
अष्टाक्षर गोपाल मंत्र - श्रीकृष्ण शरणं मम ।।
अष्टाक्षर विष्णु मंत्र - ॐ नमो नारायणाय नम:।।
गायत्री मंत्र - ॐ भूर्भुव: स्व:। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात् ।।
महा मृत्युंजय मंत्र - ॐ त्र्यम्बकं य्यजा महे सुगन्धिम्पुष्टि वर्द्धनम् उर्व्वा रुक मिव बन्धनान् मृत्योर्म्मुक्षीय मामृतात् ।।.
इसके पश्चात आदित्यहृदय स्तोत्र का पाठ करना व सूर्य मंत्र का जाप और सूर्य सम्बन्धी दान लाभकारी होता है |

वास्तु शास्त्र के प्रमुख सिद्धांत व वास्तु दोष दूर करने के सरल, लाभकारी उपाय....!!

हमारी सनातन परम्परा सदा सर्वदा से ही अति समृद्ध और जन कल्याण भाव से परिपूर्ण रहा है | हमारी पारम्परि ने हमे सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय के साथ वसुधैव कुटुम्बकम का पाठ पढाया है | जहाँ सभी प्राणी इस सृष्टि में मिल कर सध्भावना से रह सके | इसके लिए जीवन के लाभ लेने के लिए कुछ सूत्र भी दिए | ज्योतिष, वास्तु शास्त्र , कर्मकांड , पूजा पाठ , तंत्र - मंत्र विधान इसी कारण अस्तित्व्य में आये , जिनका यदि सदी उपयोग किया जाये तो हमारी जीवन आसान और कस्ट मुक्त हो सकती है | आप सभी के जीवनोपयोगी कुछ वास्तु सूत्र यहाँ दे रहा हूँ | आशा है आप इसका पूरा लाभ लेंगे |

१ - भवन का प्रवेश द्वार सदा ही प्रमुख रहा है | इसका वास्तु सम्मत होना किसी भी परिवार के लिए आवश्यक है | भवन के उत्तर व पूर्व में मुख्यद्वार व खिड़कियाँ रखना, ढाल रखना और खुला रखना शुभ होता है जिससे भवन में धनागमन का मार्ग प्रशस्त होता है। भवन का मुख्यद्वार अन्य द्वारो से बड़ा, सुंदर, भव्य और सुसज्जित होना भी आवश्यक है |
२- यदि अंडरग्राउंड टेंक की व्यस्था करनी है तो उत्तर पूर्व का कोना प्रमुख है और पानी की टंकी ( ओवर हेड टेंक ) रखने के लिए उत्तर पश्चिम (व्याव्य) शुभ है | जिसका जल प्रयोग में लेना हर प्रकार से शुभता दायक होता है |
३- भवन के दक्षिण और पश्चिम दिशा को सबसे ऊंचा, भारी और दीवारे मोटी रखने से आय में वृद्धि,राजनितिक सफलता, व्यय, रोग और नकारात्मक उर्जा पर नियंत्रण बना रहता है।
४-  भवन का मध्य भाग जिसे ब्रह्मस्थान कहते है उसे खुला व साफ़ सुथरा और वहा  एक तुलसी का पौधा रखने से परिवार में सभी सदस्य समृद्ध रहते है और शुभ उर्जा का संचार होता है |
५- स्वागत कक्ष उत्तर में रखना लाभकारी होता है |
६- परिवार के प्रमुख, वरिष्ट व्यक्ति का स्थान घर के दक्षिण पश्चिम में होने से उसका नियंत्रण व्यापार और परिवार पर बना रहता है |
७- घर के बच्चो का स्थान घर के उत्तर पूर्व दिशा में होना और विवाह योग्य कन्या का उत्तर पश्चिम के कमरे में स्थान होना विवाह बाधा दूर करने के लिए आवश्यक है |
८- भवन में पूजा स्थान इशान कोण उत्तर पूर्व होनी ज़रूरी है |
९- भवन में भवन में रसोई दक्षिण पूर्व के कोने में होनी चहिये जिसमे रसोई बनाने की व्यस्था पूर्व की तरफ हो |
१०- भवन में शौचालय और स्नानागार की व्यस्था भवन के दक्षिण पश्चिम दिशा में होनी चहिये |
११- घर के गत आत्माओ, स्वर्गीय परिजनों के चित्र दक्षिणी दीवार पर दक्षिण पश्चिम कोने में लगाने से उनका आशीर्वाद मिलता है और कृपा बनी रहती है उसके साथ साथ बुरी आत्माओ से भी परिवार की रक्षा होती है |
कुछ लाभकारी उपाय -
१- मुख्यद्वार के ऊपर गणपति स्थापित करने से घर में सभी प्रकार की सुख सुविधा रहती है और परिजनों की सुरक्षा किसी भी  उपरी बाधा, नज़र, टोटके से होती है।
२- घर में यदि नकारात्मक ऊर्जा का प्रभाव अधिक है तो नियमित समुद्री नमक युक्त पानी का पौंछा लगाना चाहिए। और गुलक की अगरबत्ती लगाना शुभ उर्जा के संचार में वृद्धि करता है |
३- भवन के उत्तर दिशा  में चमेली के तेल का दीपक जलाने से लक्ष्मी का आकर्षण और धन लाभ होता है।
४- भवन के उत्तर पूर्व में हरे, लाल कांच की बोतलों में जल भरकर चौबीस घंटे तक रक्खे तथा इस जल का सेवन एक दिन पश्चात करने से घर वालों का स्वस्थ उत्तम रहता है और आत्मविश्वास में विर्द्धि होती है।
५-उत्तर  पूर्व में या मुख्या प्रवेश द्वार के निकट निकलते समय बाये हाथ की तरफ हो ऐसी स्थिति में फिश एक्वेरियम ( मछली घर ) रखें। ऐसा करने से धन लाभ होता है।
६- संध्या कालीन समय में सम्पूर्ण घर में कपूर आरती करने से नकारात्मक प्रभाव में कमी आती है और वास्तु दोष दूर होते है।
७- घर में नित्य गोमूत्र  का छिडकाव करने से या पंचगव्य ( दूध, दही, घी, गोबर, गोमूत्र ) का लेप करने से सभी प्रकार के वास्तु दोषों से मुक्ति मिलती है और घर की उर्जा शुद्ध, पवित्र होती है |
८- व्यापार वो बंधन मुक्त रखने के लिए और किसी भी नज़र आदि से बचाव के लिए व्यापारिक प्रतिष्ठान या कार्यालय के प्रमुख द्वार पर एक काले कपडे में फिटकरी बांधकर लटकाने से और नीबूं व हरी मिर्च लटकाने से नजर नहीं लगती व्यापर अच्छा चलता है और निरंतर वृद्धि होती है होती है।
९- प्रतिष्ठान व भवन के मुख्य द्वार में आम, पीपल, अशोक के पत्तों का वंदनवार लगाने से वंशवृद्धि और धनवृद्धि होती है |
१०- घर के उत्तर पूर्व में जल क्षेत्र में वृद्धि करने से या पूजा स्थान में गंगा जल रखने से घर में सुख समृद्धि, सौहार्द का वातावरण बना रहता।
११- भवन या व्यापारिक प्रतिष्ठान में यदि कही वास्तु दोष ज्ञात हो तो उस स्थान के निकट आथवा आस पास रोली, हल्दी से स्वस्तिक चिन्ह बनाना वास्तु दोषो में कमी लाता है |
१२- ग्रह जन्य या वास्तु जन्य अथवा किसी भी समस्या के निवारण हेतु पीपल के पेड़ में दूध, जल, गुड मिश्रित द्रव्य अर्पित करने तथा धुप, दीप ,नैवध आदि से पूजा करने से श्री वृद्धि के साथ सभी पापो का नाश होता है तथा यश की वृद्धि होती है |
१३ - भवन में यदि दोनों प्रहर की संध्या आरती में शंखनाद करने से ऋणायनों में कमी होती है और आरोग्यता की प्राप्ति होती है।
१४- घर के आँगन में सदा ही तुलसी का पौधा होना आवश्यक है जो कर को शुभ उर्जा प्रदान कर नकारात्मक उर्जा को समाप्त करता है |

इस प्रकार इन कुछ सरल उपायों को करने के बाद कोई भी व्यक्ति अपने जीवन को खुशहाल और समृद्ध कर सकता है | इसके साथ साथ नियमित किसी भी देवी - देवता की आराधना करना और अपने पितृ देवताओ के निमित्त कुछ नियमित दान करने से उनकी कृपा बनी रहती है और जीवन के कस्टो का निदान स्वत : ही होता है |

सर्वसुख, समृद्धि, यश, आरोग्य दायक गोवर्धन पूजा का पर्व अन्नकूट...!!!

कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को गोवर्धन उत्सव मनाया जाता है । इस दिन बलि पूजा, अन्न कुट, मार्गपाली आदि उत्सव भी सम्पन्न होते है । यह ब्रजवासियो का मुख्य त्यौहार है । अन्नकुट या गोवर्धन पूजा भगवान कृष्ण के अवतार के बाद द्वापर युग से प्रारम्भ हुई । गाय बैलआदि पशुओ को स्नान कराकर फूल माला, धूप, चन्दन आदि से उनका पूजन कियाजाता है । गायो का मिठाई खिलाकर उनकी आरती उतारी जाती है तथा प्रदक्षिणा की जाती है । गोबर से गोवर्धन पर्वत बनाकर जल, मौली, रोली, चावल, फूल दही तथा तेल का दीपक जलाकर पूजा करते है तथा परिक्रमा करते है । कार्तिक शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को भगवान के निमित्त भोग व नैवेद्य में नित्य के नियमित पदार्थों के अतिरिक्त यथासामर्थ्य अन्ने से बने कच्चे-पक्के भोग, फल, फूल; और चटनी, मुरब्बे, अचार आदि खट्टे - मीठे - अनेक प्रकार के पदार्थ जिन्हें "छप्पन भोग" कहते है बनाकर भगवान को अर्पण करने काविधान भागवत में बताया गया है, और फिर सभी सामग्री अपने परिवार , मित्रो को वितरण कर के प्रसाद ग्रहण करे । पूजा के निमित्त आज के दिन श्री कृष्ण ने पके हुये अन्नकूट भोग (अर्थात अन्न से निर्मित कच्चे पक्के भोग ) लगा दिये इसलिए इस दिन का नाम अन्नकूट भी पड़ा। अन्नकूट यथार्थ में गोवर्धन की पूजा का ही समारोह है । प्राचीन काल में व्रज के सम्पूर्ण नर - नारी अनेक पदार्थों से मेघो के स्वामी इन्द्र को प्रसन्न रखने के लिए प्रतिवर्ष यह उत्सव मानते और इन्द्र का पूजन करते तथा नाना प्रकार के षडरसपूर्ण ( छप्पन भोग, छत्तीसों व्यञ्जन ) भोग लगाते थे । इस पर्व को गोवर्धन, अन्नकूट और बलिराज नाम से भी जाना जाता  है | इस दिन भगवान श्री कृष्ण ने इंद्र की पूजा को बंद करा कर इस के स्थान पर गोवर्धन की पूजा को प्रारंभ किया था और दूसरी ओर स्वयं गोवर्धनं रूप धर कर पूजा ग्रहण की इससे कुपित होकर इंददेव ने मूसलाधार जल बरसाया और श्री कुष्ण जी ने गोप और गोपियों को बचाने के लिए अपनी कनिष्ठ उंगली पर गोवर्धन पर्वत को उठाकर इंद्र का मानमर्दन किया था उनके ही स्मण के लिए गोवर्धन और गौ पूजन का विधान है | सब ब्रजवासी सात दिन तक गोवर्धन पर्वत की शरण मे रहें । सुदर्शन चक्र के प्रभाव से ब्रजवासियो पर एक जल की बूँद भी नही पडी । ब्रह्या जी ने इन्द्र को बताया कि पृथ्वी पर श्री कृष्ण ने जन्म ले लिया है । उनसे तुम्हारा वैर लेना उचित नही है । श्रीकृष्ण अवतार की बात जानकर इन्द्रदेव अपनी मुर्खता पर बहुत लज्जित हुए तथा भगवान श्रीकृष्ण से क्षमा याचना की। श्रीकृष्ण ने सातवे दिन गोवर्धन पर्वत को नीचे रखकर ब्रजवासियो से आज्ञा दी कि अब से प्रतिवर्ष गोवर्धन पूजा कर अन्नकूट का पर्व उल्लास के साथ मनाओ।

यूँ तो आज गोवर्धन ब्रज की छोटी पहाड़ी है, किन्तु इसे गिरिराज (अर्थात पर्वतों का राजा) कहा जाता है। इसे यह महत्व या ऐसी संज्ञा इस लिये प्राप्त है क्यूँकि यह भगवान कृष्ण के समय का एक मात्र स्थाई व स्थिर अवशेष है। उस समय की यमुना नदी जहाँ समय-समय पर अपनी धारा बदलती रही है, वहां गोवर्धन अपने मूल स्थान पर ही अविचलित रुप में विधमान है। इसे भगवान कृष्ण का स्वरुप और उनका प्रतिक भी माना जाता है |और इसी रुप में इसकी पूजा भी की जाती है। बल्लभ सम्प्रदाय के उपास्य देव श्रीनाथ जी का प्राकट्य स्थल होने के कारण इसकी महत्ता और बढ़ जाती है । गर्ग संहिता में इसके महत्व का कथन करते हुए कहा गया है - गोवर्धन पर्वतों का राजा और हरि का प्यारा है। इसके समान पृथ्वी और स्वर्ग में कोई दूसरा तीर्थ नहीं है। यद्यपि वर्तमान काल में इसका आकार-प्रकार और प्राकृतिक सौंदर्य पूर्व की अपेक्षा क्षीण हो गया है, फिर भी इसका महत्व कदापि कम नहीं हुआ है। इस दिन स्नान से पूर्व तेलाभ्यंग अवश्य करना चहिये | इससे आयु, आरोग्य की प्राप्ति होती है और दुःख दारिद्र्य का नाश होता है |  इस दिन जो शुद्ध भाव से भग्वत चरण में सादर समर्पित, संतुष्ट, प्रसन्न रहता है वह वर्ष पर्यंत सुखी और समृद्ध रहता है यदि आज के दिन कोई दुखी है तो वर्ष भर दुखी रहेगा इसलिए मनुष्य को इस दिन प्रसन्न होकर इस उत्सव को सम्पूर्ण भाव से मनाना चाहिए |

काल से मुक्ति का अद्भुद पर्व " यम द्वितिया "....!!!

कार्तिक मॉस के शुक्ल पक्ष की द्वितिया को यम द्वितिया भी कहते है | इस दिन युमनाजी ने अपने घर आये हुये भाई यमराज को सत्कार पूर्वक भोजन कराया था अत: इस दिन मनुष्यों को अपनी भगिनी के हाथ का बना हुआ भोजना करना चाहिए और बहिन को शक्ति के अनुसार प्रसन्न करना चाहिए |  इस दिन यमुना जी में स्नान कर और भगवान यमराज जी का पूजन अवश्य करना चाहिए | जो मनुष्य कार्तिक शुक्ल द्वितिया के दिन अपनी भगिनी अर्थात बहन या धर्म भागिनी को अन्न - वस्त्र दान ,धन दान से संतुष्ट करता है उसके लिये वर्ष पर्यत अरोग्यता, दुखों से छुटकारा तथा शत्रु पर विजय प्राप्ति, दुर्घटना से बचाव, आकरण विवाद से सुरक्षा के साथ साथ मृत्यु के देवता यम की कृपा भी प्राप्त होती है इस दिन संध्या कालीन समय में एक सरसों के तेल का दीपक अपने घर के प्रमुख द्वार पर एक कौड़ी ड़ाल कर अवश्य रखना चाइये जिसे "यम दीप" कहते है जिससे अंधकार का नाश हो और जीवन में सुख समृद्धि की प्राप्ति हो यम देव की कृपा कुटुंब पर अनवरत बनी रहे | बृज मंडल के प्राचीन गौरव की वृद्धि में यमुना की महत्ता का अनुपम योग रहा है। पुरातत्व की दृष्टि से ये कृष्ण काल से भी पूर्व अवशेष हैं, अतः कृष्ण कालीन निश्चित चिन्हों के रुप में इनका असाधारण महत्व माना गया है। यमुना उत्तर भारत की पुण्यमयी नदियों में गंगा के बाद सर्वाधिक प्रसिद्ध है। गंगा और यमुना के मध्यवर्ती पुरातन प्रदेश में आर्य संस्कृति का सवोत्तम रुप सजाया और सवारा गया था। उनके संगम पर ही आर्य सभ्यता के आदिम केन्द्र 'प्रतिष्ठानपुर' (वर्तमान प्रयाग के समीप 'झूँसी') की स्थापना हुई थी। यमुना के तट पर प्रागैतिहासिक काल में मधुपुरी अथवा मधुरा (वर्तमान मथुरा) को बसाया गया था। जहाँ द्वापर युग में भगवान् कृष्ण ने जन्म लिया था, इसी के तट पर महाभारत कालीन इन्द्रप्रस्थ (वर्तमान दिल्ली) और जैन साहित्य में वर्णित प्राचीन नगर सौरिपुर (वर्तमान बटेश्वर) की स्थापना की गयी थी। बौद्ध साहित्य में वर्णित प्राचीन नगरी कौशाम्बी भी इसी के तट पर स्थापित थी | पौराणिक अनुश्रुति के अनुसार यमुना धर्मराज यम की बहिन है, अतः इसे यमी कहा जाता है। बहिन की पूजा के साथ भाई अर्थात मृत्यु के देवता यम की पूजा भी ब्रज में प्रचलित हो गयी । मथुरा सम्पूर्ण भारतवर्ष में यम पूजा का कदाचीत, एक मात्र स्थान है। कार्तिक शुक्ल द्वितिया को यह पूजा मथूरा में प्रतिवर्ष एक महान पर्व के रुप में की जाती है आपितु अब यह पूजा सम्पूर्ण भारत वर्ष में बड़े ही आदर भाव व सम्मान के साथ मनाई जाती है। इस अवसर पर भारत वर्ष के कोने - कोने से लाखों श्रद्धालु  आकर यमुना में स्नान करते हैं। इस दिन काले तिल, उरद की दाल, सरसों के तेल, काले कपडे,  कोयले, चमड़े की चप्पल, छाता, लोहे का कोई पात्र दान करने से पुण्यलाभ होता है और जमुना की कृपा के साथ साथ यम की भी कृपा प्राप्ति होती है |  उन स्नानार्थियों में अनेक भाई-बहिन होते हैं, जो उक्त अवसर पर स्नान करने के लिये मथुरा आते हैं। भाई-बहिन के स्नेह - वर्धन  का यह अनुपम त्यौहार यमुना नदी और मथुरामंडल के महत्व को बढ़ा देता है। संस्कृत और ब्रजभाषा के अनेक कवियों ने यमुना की प्रशस्ति के छन्दों की रचना द्वारा अपनी वाणी को पवित्र और स्थाई किया है।

भाई बहन के स्नेह का पर्व "भाई दूज" ...!!!

कार्तिक शुक्ल द्वितीया को मनाया जाने वाला यह पर्व भाई बहन के स्नेह का अद्भुद प्रतिक पर्व है | दीपावली के पाँच दिवसीय महोत्सव में से यह एक अतिमहत्व्यपूर्ण पर्व है जिसे हम 'भाई दूज' कहते है । भाई दूज को यम द्वितीया भी कहते हैं। भाई दूज की पौराणिक कथानुसार सूर्यदेव की पत्नी छाया की कोख से यमराज तथा यमुना का जन्म हुआ। यमुना अपने भाई यमराज से स्नेहवश निरंतर निवेदन करती थी कि वे उसके घर आकर भोजन करें तथा उसका आथिथ्य स्वीकार करे। लेकिन यमराज को व्यस्तता  के चलते अवसर ही न मिल पाता । कार्तिक शुक्ल द्वितीया को यमुना अपने घर के द्वार पर अचानक यमराज को खड़ा देखकर भाव -विभोर और हर्षित हो गई। प्रसन्नचित्त हो भाई को विजय तिलक लगाया और यथा सामर्थ स्वागत-सत्कार किया तथा भोजन करवाया। इससे प्रसन्न होकर यमराज ने बहन से वर माँगने को कहा। तब बहन ने भाई से कहा कि आप प्रतिवर्ष इस दिन मेरे यहाँ भोजन करने आया करेंगे तथा इस दिन जो बहन अपने भाई को टीका करके भोजन खिलाए उसे आपका भय न रहे। यमराज ने प्रसन्न होकर यमुना को यह वरदान दिया कि इस दिन यदि भाई-बहन दोनों एक साथ यमुना नदी में स्नान करेंगे तो उनकी मुक्ति हो जाएगी और तथास्तु कहकर यमुना को अमुल्य वस्त्राभूषण देकर यमपुरी को चले गये । ऐसी भी मान्यता है की यम ने इस दिन अपने बहन के घर जाने से पूर्व सभी आत्माओ को मुक्त कर दिय था जिससे उन्हें यम की यातना से मुक्ति मिली इसी कारण इस दिन यमुना नदी में भाई-बहन के एक साथ स्नान करने का बड़ा महत्व है। इसके अलावा यमी ने अपने भाई से यह भी वचन लिया कि जिस प्रकार आज के दिन उसका भाई यम उसके घर आया है, हर भाई अपनी बहन के घर जाए। तभी से भाईदूज मनाने की प्रथा चली आ रही है। जिनकी बहनें दूर रहती हैं, वे भाई अपनी बहनों से मिलने भाईदूज पर अवश्य जाते हैं | मान्यता ऐसी भी है की  जो भी भाई आज के दिन अपने बहन के हाथ का बना कुछ भी भोग ग्रहण करते है, उनके आतिथ्य को स्वीकार करते है, और अपनी बहन का आदर सत्कार, सम्मान से विदाई करते है उन्हें यमुना के भाई यम के कोप से मुक्ति मिल जाएगी |  
 हिंदू समाज में भाई-बहन के अमर प्रेम के दो ही त्योहार हैं। पहला है रक्षा बंधन जो श्रावण मास की पूर्णिमा को आता है तथा दूसरा है भाई दूज जो दीपावली के तीसरे दिन आता है। परम्परा है कि रक्षाबंधन वाले दिन भाई अपनी बहन को रक्षा का वचन देकर उपहार देता है और भाई दूज वाले दिन बहन अपने भाई को तिलक लगाकर, उपहार देकर उसकी लम्बी उम्र की कामना करती है। रक्षा बंधन वाले दिन भाई के घर तो, भाई दूज वाले दिन बहन के घर उसके हाथो से सप्रेम बना भोजन करना अति शुभ फलदाई होता है।यह पर्व भाई बहन के प्रेम का अनूठा पर्व है | इस पर्व पर भाई का बहन के घर जा कर उसके हटो बना कुछ भोग ग्रहण करना ही बड़ा शुभ माना गया है, उसके बाद बहन का भाई को उपहार देना और भाई का बहन को कुछ उपहार, अन्न , वस्त्र, धन देना सौभाग्य में वृद्धि करता है | 
उत्तर भारत की परम्परा में हर पर्व मानाने का अपना अलग ही मिजाज़ और उत्साह दीखता है | चाहे वह पर्व कितना ही बड़ा से बड़ा हो या छोटा से छोटा | पूरी परम्परा और रीती रिवाज़ के साथ सारे नियम का पालन पूर्ण निष्ठा व भाव से किया जाता है | भाई दूज के दिन यहाँ गोधना कूटने का विधान है, जिसे कूटने समाज और परिवार के सभी औरते, महिलाये एक स्थान पर जुटती है और फिर गोधना में कुटा गया लावा भाई को खिलाती है और चना भाई को घोटना होता है फिर बहन भाई से यह वचन लेती है के हमेशा की तरह भाई उनकी रक्षा करेगा और आज के दिन उनके घर आना नहीं भूलेगा |  भाई दूज के दिन हर बहन कुमकुम एवं अक्षत से अपने भाई का तिलक कर उसके उज्ज्वल भविष्य के लिए आशीष देती हैं। भाई अपनी बहन को अन्न - वस्त्र और यथाशक्ति कुछ उपहार या दक्षिणा देता है। 

इसके अलावा कायस्थ समाज में इसी दिन अपने आराध्य देव चित्रगुप्त की पूजा की जाती है। कायस्थ लोग स्वर्ग में धर्मराज का लेखा-जोखा रखने वाले चित्रगुप्त का पूजन सामूहिक रूप से तस्वीरों, चित्रों अथवा मूर्तियों के माध्यम से करते हैं। वे इस दिन कारोबारी बहीखातों की पूजा भी करते हैं। आज के दिन कोई लिखा पढ़ी का कार्य नहीं किया जाता और सभी अध्यन - आध्यापन सामग्री को पूजा कक्ष में चित्रगुप्त जी के समक्ष रख दिया जाता है |



दुःख दारिद्र्य दूर करने व रूप प्राप्ति का अवसर नरक चतुर्दशी...!!!

कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी नरक चतुर्दशी अथवा रूप चतुर्दशी एव छोटी दीपावली के रूप में मनायी जाती है। यह त्यौहार नरक चौदस या नर्का पूजा के नाम से भी प्रसिद्ध है। शास्त्रीय कथानुसार आज ही के दिन भगवान श्री कृष्ण ने अत्याचारी और दुराचारी दु्र्दान्त असुर नरकासुर का वध किया था और सोलह हजार एक सौ कन्याओं को नरकासुर के बंदी गृह से मुक्त कर उन्हें सम्मान प्रदान किया था। भगवान श्रीकृष्ण द्वारा नरकासुर को उसके अंत समय दिए वर के अनुसार इस दिन सूर्योदय से पूर्व जो अभ्यंगस्नान ( शरीर में तेल लगा कर ) करता है, उसे कृष्ण कृपा से नरक यातना नहीं भुगतनी पडती, उसके सारे पाप क्षयं हो जाते है । इस दिन से पाप और नर्क से मुक्ति हेतु भूलोक में कार्तिक चतुर्दशी के दिन का व्रत प्रचलित है। स्नान के पश्चात विष्णु मंदिर और कृष्ण मंदिर में भगवान का दर्शन करना अत्यंत पुण्यदायक कहा गया है। इससे पाप का नाश होता है और रूप सौन्दर्य की प्राप्ति होती है।अन्य प्राचीन कथानुसार प्राचीन समय में रन्तिदेवी नामक राजा हुए थे । वह पुर्व जन्म में एक धर्मात्मा तथा दानी थे । इस जन्म में भी वे दानी थे उनके अन्तिम समय में यमदूत उन्हे नरक में ले जाने लिए आए । राजा ने कहा मैं तो दान दक्षिणा तथा सत्यकर्म करता रहा हूँ । फिर मुझे नरक क्यो ले जाना चाहते हो । यमदुतो ने बताया कि एक बार तुम्हारे द्वार से भुख से व्याकुल ब्राह्यण लौट गया था। इसलिए तुम्हे नरक मे जाना पडेगा । यह सुनकर राजा ने यमदूतो से विनती कि की मेरी आयु एक वर्ष और बढा दी जाए यमदुतो ने बिना सोच विचार किये राजा की प्रार्थना स्वीकार  कर ली। यमदूत चले गये। राजा ने ऋषियो के पास जाकर इस पाप से मुक्ति का उपाय पुछा । ऋषियो ने बताया - हे राजन! तुम कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी का व्रत रखकर भगवान कृष्ण का पूजन करना, ब्राह्यणो को भोजन कराकर दक्षिणा देना तथा अपना अपराध ब्राह्यणा को बताकर उनसे क्षमा याचना करना, तब तुम पाप से मुक्त हो जाओगे । कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को राजा ने नियम पूर्वक व्रत रखा और विष्णु लोक को प्राप्त हुआ | 

कथा यह भी है की  पुरातनकाल में है हिरण्यगर्भ नाम के स्थान पर एक योगीराज रहते थे । उन्होंने भगवान की घोर आरधना के लिए समाधि शुरू की। समाधि लगाए कुछ दिन ही बीते थे कि उनके शरीर में कीडे पड गए । योगीराज को काफी दुख हुआ।
नारद मुनि उस समय वहाँ से निकले और योगीराज को व्यथित देख उनके के दुख का कारण पूछा। योगीराज ने अपना दुख बताया तो नारद बोले कि हे योगीराज आपने आपध्धर्म अर्थात देह आचार का पालन नहीं किया इसलिए आपकी यह दशा हुई । अब आप कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को व्रत रख भगवान का स्मरण करे व पूजा करे तो आपकी देह पहले जैसी हो जाएगी व आप रूप सौन्दर्य को प्राप्त करगे। योगीराज ने नारद मुनि के सुझाव अनुसार कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी का व्रत सम्पूर्ण विधि से किया और भगवान कृष्ण की पूजा आरधना की और रूप सौन्दर्य को प्राप्त किया।

आज के दिन मृत्यु के देवता यमराज के लिए दीप दान भी किया जाता है। नरक से मुक्ति पाने हेतु इस दिन सूर्योदय से पूर्व उठकर शरीर में तेल लगाकर अपामार्ग ( चिचडी) पौधे सहित जल मे स्नान करने का बड़ा महात्मय है।  स्नानादि से निर्वित्त होकर यमराज का तर्पण कर तीन अंजलि जल अर्पित करने का विधान भी बताया गया है। संध्याकालीन समय में यमराज के लिए दीपदान करना चाहीए । तद्पश्चात एक थाली में एक चौमुखी दीपक और सोलह छोटे दीपक लेकर तेल बाती डालकर जलाना चाहिए। इसी दिन देवाधीदेव महादेव के एकादश अवतार बजरंग बली भगवान हुनमान जी की जयंती भी मनाई जाती है। फिर रोली, धूप, अबीर, गुलाल, गुड, फूल आदि से पंचोपचार पूजन करें। यह पूजन स्त्रियों को घर के परूषों के बाद करना चाहिए। पूजा के बाद चौमुखी दीपक को घर के मुख्य द्वार पर रख दें और बाकी दीपक घर के अलग अलग स्थानों पर रख दें। माँ लक्ष्मी की पूजा आज भी की जाती है | नरकचतुर्दशी के दिन अभ्यंगस्नान, यमतर्पण, आरती, ब्राह्मणभोज, वस्त्रदान, यमदीपदान, प्रदोषपूजा, शिवपूजा, दीपप्रज्वलन जैसी धार्मिक विधियां करने से कोई भी मनुष्य अपने सभी पाप बंधन से मुक्त हो कर हरीपद को प्राप्त कर्ता है |


सुख समृद्धि आरोग्यता प्रदायक धनतेरस पर्व...!!!

जिस प्रकार देवी लक्ष्मी सागर मंथन से उत्पन्न हुई थी उसी प्रकार देवताओ के चिकित्सक आयुर्वेद के प्रवर्तक भगवान धनवन्तरि भी अमृत कलश के साथ सागर मंथन से उत्पन्न हुए हैं। भगवान के 24 अवतारों में से स्वास्थ्य के देवता के रूप में भगवान धन्वंतरि का एक अवतार माना जाता है। इस दिन दीर्घ जीवन तथा आरोग्य लाभ के लिए भगवान धन्वंतरि का पूजन किया जाता है। यह भी कहा जाता है कि वे संपूर्ण पृथ्वी पर प्राणियों को रोगमुक्त करने के लिए भव-भेष्जावतार के रूप में प्रकट हुए थे। वास्तव में ‘स्वास्थ्य ही धन है’ यह कहावत संभवत: आदिकाल से चली आ रही है। स्वास्थ्य की कामना एवं धनतेरस का परस्पर संबंध यही बताता है कि लक्ष्मी का सदुपयोग करना व्यक्ति के स्वस्थ रहने पर ही संभव है। इसी कारण ‘धनतेरस’ के दिन स्वास्थ्य के अवतार धन्वंतरि की पूजा का विधान है। उन्हें विष्णु का अवतार भी माना जाता है। देवी लक्ष्मी धन देवी हैं परन्तु उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए मनुष्य को उत्तम स्वस्थ्य और दीर्घ आयु की आवशकता होती है उन्होंने देवताओं को अमृतपान कराकर अमर कर दिया था। अतः वर्तमान संदर्भ में भी आयु और स्वस्थता की कामना से धनतेरस पर भगवान धन्वंतरि का पूजन किया जाता है। दीपावली के दो दिन पहले से ही यानी धनतेरस से ही दीपामालाएं सजने लगती हें और माँ लक्ष्मी व  धनवन्तरि जी आराधना से धन धान्य और आरोग्यता की प्रार्थना होने लगती है | इसमें त्रयोदशी से दीपावली पर्व तक गौशाला की विशेष सफाई, गौ पूजन तथा उसके बाद सौभाग्यवती स्त्रियों को सप्तधान्य, सात मिठाई एवं विभिन्न प्रकार के फल देने की भी परंपरा भी है। गौत्रिरात्र-व्रत महालक्ष्मी पूजन दीपावली के दिन से तीन दिन का माना गया है, ऐसी मान्यता है कि इससे पारिवारिक सुख में वृद्धि होती है। साथ ही जीवन धनधान्य से समृद्ध होता है।
एक अन्य मान्यता के अनुसार पौराणिक कथा है कि माँ लक्ष्मी को विष्णु जी का श्राप था कि उन्हें 13 वर्षों तक किसान के घर में रहना होगा। श्राप के दौरान किसान का घर धनसंपदा से भर गया। श्रापमुक्ति के उपरांत जब विष्णुजी लक्ष्मी को लेने आए तब किसान ने उन्हें रोकना चाहा। लक्ष्मीजी ने कहा कल त्रयोदशी है तुम साफ-सफाई करना, दीप जलाना और मेरा आह्वान करना। किसान ने ऐसा ही किया और लक्ष्मी की कृपा प्राप्त की । तभी से लक्ष्मी पूजन की प्रथा का प्रचलन आरंभ हुआ।

कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि के दिन ही धन्वन्तरि जी का जन्म हुआ था इसलिए इस तिथि को धनतेरस के नाम से जाना जाता है । धन्वन्तरी जब प्रकट हुए थे तो उनके हाथो में अमृत से भरा कलश था। भगवान धन्वन्तरी चुकि कलश लेकर प्रकट हुए थे इसलिए ही इस अवसर पर बर्तन खरीदने की परम्परा है। कहीं कहीं लोकमान्यता के अनुसार यह भी कहा जाता है कि इस दिन धन (वस्तु) खरीदने से उसमें 13 गुणा वृद्धि होती है। इस अवसर पर धनिया के बीज खरीद कर भी लोग घर में रखते हैं। दीपावली के बाद इन बीजों को लोग अपने बाग-बगीचों में या खेतों में बोते हैं। 

धनतेरस की दिन संध्या काल में घर के बाहर मुख्य द्वार पर और आंगन में दीप जलाने की प्रथा भी है। इस प्रथा के पीछे एक पौराणीक कथानुसार किसी समय में एक राजा थे जिनका नाम हेम था। दैव कृपा से उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। ज्योंतिषियों ने जब बालक की कुण्डली बनाई तो पता चला कि बालक का विवाह जिस दिन होगा उसके ठीक चार दिन के बाद वह मृत्यु को प्राप्त होगा। राज इस बात को जानकर बहुत दुखी हुए और राजकुमार को ऐसी जगह पर भेज दिया जहां किसी स्त्री की परछाई भी न पड़े। दैवयोग से एक दिन एक राजकुमारी उधर से गुजरी और दोनों एक दूसरे को देखकर मोहित हो गये और उन्होंने गन्धर्व विवाह कर लिया। विवाह के पश्चात विधि का विधान सामने आया और विवाह के चार दिन बाद यमदूत उस राजकुमार के प्राण लेने आ पहुंचे। जब यमदूत राजकुमार प्राण ले जा रहे थे उस वक्त नवविवाहिता उसकी पत्नी का विलाप सुनकर उनका हृदय भी द्रवित हो उठा परंतु विधि के अनुसार उन्हें अपना कार्य करना पड़ा। यमराज को जब यमदूत यह कह रहे थे उसी वक्त उनमें से एक ने यमदेवता से विनती की हे यमराज क्या कोई ऐसा उपाय नहीं है जिससे मनुष्य अकाल मृत्यु के लेख से मुक्त हो जाए। दूत के इस प्रकार अनुरोध करने से यमदेवता बोले हे दूत अकाल मृत्यु तो कर्म की गति है इससे मुक्ति का एक आसान तरीका मैं तुम्हें बताता हूं सो सुनो। कार्तिक कृष्ण पक्ष की रात जो प्राणी मेरे नाम से पूजन करके दीप माला दक्षिण दिशा की ओर भेट करता है उसे अकाल मृत्यु का भय नहीं रहता है । यही कारण है कि लोग इस दिन घर से बाहर दक्षिण दिशा की ओर दीप जलाकर रखते हैं। जहाँ जहाँ जिस जिस घर में यह पूजन होता है वहाँ अकाल मृत्यु का भय नही रहता है । इसी घटना से धनतेरस के दिन धन्वतरि पूजन सहित यमराज के निमित्त दीप दान की प्रथा का प्रचलन हुआ।

लोक परम्परानुसार धनतेरस के दिन स्वर्ण आभूषण  व चांदी खरीदने की भी प्रथा है। इसके पीछे यह कारण माना जाता है कि यह चन्द्रमा का प्रतीक है जो शीतलता प्रदान करता है और मन में संतोष रूपी धन का वास होता है। संतोष को सबसे बड़ा धन कहा गया है। जिसके पास संतोष है वह स्वस्थ है सुखी है और वही सबसे धनवान है। सोना सौंदर्य में वृद्धि तो करता ही है, मुश्किल घड़ी में संचित धन के रूप में भी काम आता है। कुछ लोग शगुन के रूप में सोने या चांदी के सिक्के भी खरीदते हैं। भगवान धन्वन्तरी जो चिकित्सा के देवता भी हैं उनसे स्वास्थ्य और सेहत की कामना के लिए संतोष रूपी धन से बड़ा कोई धन नहीं है। लोग इस दिन ही दीपावली की रात लक्ष्मी गणेश की पूजा हेतु मूर्ति भी खरीदते हें। 

धनतेरस पूजन में क्या करें

इस दिन धन्वंतरिजी का पूजन करें। नवीन झाडू एवं सूपड़ा खरीदकर उनका पूजन करें। सायंकाल दीपक प्रज्वलित कर घर, दुकान आदि को सुसज्जित करें। मंदिर, गौशाला, नदी के घाट, कुओं, तालाब, बगीचों में भी दीपक लगाएँ। यथाशक्ति ताँबे, पीतल, चाँदी के गृह-उपयोगी नवीन बर्तन व आभूषण क्रय करते हैं। हल जुती मिट्टी को दूध में भिगोकर उसमें सेमर की शाखा डालकर तीन बार अपने शरीर पर फेरें। कार्तिक स्नान करके प्रदोष काल में घाट, गौशाला, बावड़ी, कुआँ, मंदिर आदि स्थानों पर तीन दिन तक दीपक जलाएँ। शुभ मुहूर्त में अपने व्यावसायिक प्रतिष्ठान में नई गद्दी बिछाएँ अथवा पुरानी गद्दी को ही साफ कर पुनः स्थापित करें।
सायंकाल पश्चात तेरह दीपक प्रज्वलित कर तिजोरी में कुबेर का ध्यान व पूजन करते हैं।

निम्न ध्यान बोलकर भगवान कुबेर पर फूल चढ़ाएँ - श्रेष्ठ विमान पर विराजमान, गरुड़मणि के समान आभावाले, दोनों हाथों में गदा एवं वर धारण करने वाले, सिर पर श्रेष्ठ मुकुट से अलंकृत तुंदिल शरीर वाले, भगवान शिव के प्रिय मित्र निधीश्वर कुबेर का मैं ध्यान करता हूँ। इसके पश्चात निम्न मंत्र द्वारा चंदन, धूप, दीप, नैवेद्य से पूजन करें -
 कुबेर मंत्र:- 'यक्षाय कुबेराय वैश्रवणाय धन-धान्य अधिपतये धन-धान्य समृद्धि मे देहि दापय स्वाहा ।'



शास्त्र का वचन है की :-
कार्तिक स्यासिते पक्षे त्रयोदश्यां निशामुखेयमदीपं वहिर्दघाद अपमृत्यु र्विनश्यति।
अर्थात विधिपूर्वक दीपदान करते हुए यम का अर्चनकरने से अपमृत्यु का भय नहीं होता।

इसके पश्चात कपूर से आरती उतारकर मंत्र पुष्पांजलि अर्पित करें।

श्री शिवकृतं दुर्गास्तोत्रम्...!!

शिवकृतं दुर्गास्तोत्रम्

श्रीमहादेव उवाच
रक्ष रक्ष महादेवि दुर्गे दुर्गतिनाशिनि। मां भक्त मनुरक्तं च शत्रुग्रस्तं कृपामयि॥
विष्णुमाये महाभागे नारायणि सनातनि। ब्रह्मस्वरूपे परमे नित्यानन्दस्वरूपिणी॥
त्वं च ब्रह्मादिदेवानामम्बिके जगदम्बिके। त्वं साकारे च गुणतो निराकारे च निर्गुणात्॥
मायया पुरुषस्त्वं च मायया प्रकृति: स्वयम्। तयो: परं ब्रह्म परं त्वं बिभर्षि सनातनि॥
वेदानां जननी त्वं च सावित्री च परात्परा। वैकुण्ठे च महालक्ष्मी: सर्वसम्पत्स्वरूपिणी॥
म‌र्त्यलक्ष्मीश्च क्षीरोदे कामिनी शेषशायिन:। स्वर्गेषु स्वर्गलक्ष्मीस्त्वं राजलक्ष्मीश्च भूतले॥
नागादिलक्ष्मी: पाताले गृहेषु गृहदेवता। सर्वशस्यस्वरूपा त्वं सर्वैश्वर्यविधायिनी॥
रागाधिष्ठातृदेवी त्वं ब्रह्मणश्च सरस्वती। प्राणानामधिदेवी त्वं कृष्णस्य परमात्मन:॥
गोलोके च स्वयं राधा श्रीकृष्णस्यैव वक्षसि। गोलोकाधिष्ठिता देवी वृन्दावनवने वने॥
श्रीरासमण्डले रम्या वृन्दावनविनोदिनी। शतश्रृङ्गाधिदेवी त्वं नामन चित्रावलीति च॥
दक्षकन्या कुत्र कल्पे कुत्र कल्पे च शैलजा। देवमातादितिस्त्वं च सर्वाधारा वसुन्धरा॥
त्वमेव गङ्गा तुलसी त्वं च स्वाहा स्वधा सती। त्वदंशांशांशकलया सर्वदेवादियोषित:॥
स्त्रीरूपं चापिपुरुषं देवि त्वं च नपुंसकम्। वृक्षाणां वृक्षरूपा त्वं सृष्टा चाङ्कुररूपिणी॥
वह्नौ च दाहिकाशक्ति र्जले शैत्यस्वरूपिणी। सूर्ये तेज:स्वरूपा च प्रभारूपा च संततम्॥
गन्धरूपा च भूमौ च आकाशे शब्दरूपिणी। शोभास्वरूपा चन्द्रे च पद्मसङ्घे च निश्चितम्॥
सृष्टौ सृष्टिस्वरूपा च पालने परिपालिका। महामारी च संहारे जले च जलरूपिणी॥
क्षुत्त्‍‌वं दया त्वं निद्रा त्वं तृष्णा त्वं बुद्धिरूपिणी। तुष्टिस्त्वं चापि पुष्टिस्त्वं श्रद्धा त्वं च क्षमा स्वयम्॥
शान्तिस्त्वं च स्वयं भ्रान्ति: कान्तिस्त्वं कीर्तिरेव च। लज्जा त्वं च तथा माया भुक्ति मुक्ति स्वरूपिणी॥
सर्वशक्ति स्वरूपा त्वं सर्वसम्पत्प्रदायिनी। वेदेऽनिर्वचनीया त्वं त्वां न जानाति कश्चन॥
सहस्त्रवक्त्रस्त्वां स्तोतुं न च शक्त : सुरेश्वरि। वेदा न शक्त ा: को विद्वान् न च शक्त ा सरस्वती॥
स्वयं विधाता शक्तो न न च विष्णु: सनातन:। किं स्तौमि पञ्चवक्त्रेण रणत्रस्तो महेश्वरि॥
कृपां कुरु महामाये मम शत्रुक्षयं कुरु।

भावार्थ
श्रीमहादेवजी ने कहा - दुर्गति का विनाश करने वाली महादेवि दुर्गे! मैं शत्रु के चंगुल में फँस गया हूँ; अत: कृपामयि! मुझ अनुरक्त भक्त की रक्षा करो, रक्षा करो। महाभगे जगदम्बिके! विष्णुमाया, नारायणी, सनातनी, ब्रह्मस्वरूपा, परमा और नित्यानन्दस्वरूपिणी- ये तुम्हारे ही नाम हैं। तुम ब्रह्मा आदि देवताओं की जननी हो। तुम्हीं सगुण-रूप से साकार और निर्गुण-रूप से निराकार हो। सनातनि! तुम्हीं माया के वशीभूत हो पुरुष और माया से स्वयं प्रकृति बन जाती हो तथा जो इन पुरुष-प्रकृति से परे हैं; उस परब्रह्म को तुम धारण करती हो। तुम वेदों की माता परात्परा सावित्री हो। वैकुण्ठ में समस्त सम्पत्तियों की स्वरूपभूता महालक्ष्मी, क्षीरसागर में शेषशायी नारायण की प्रियतमा म‌र्त्यलक्ष्मी, स्वर्ग में स्वर्गलक्ष्मी और भूतलपर राजलक्ष्मी तुम्हीं हो। तुम पाताल में नागादिलक्ष्मी, घरों में गृहदेवता, सर्वशस्यस्वरूपा तथा सम्पूर्ण ऐश्वर्यो का विधान करने वाली हो। तुम्हीं ब्रह्मा की रागाधिष्ठात्री देवी सरस्वती हो और परमात्मा श्रीकृष्ण के प्राणों की अधिदेवी भी तुम्हीं हो। तुम गोलोक में श्रीकृष्ण के वक्ष:स्थल पर शोभा पाने वाली गोलोक की अधिष्ठात्री देवी स्वयं राधा, वृन्दावन में होने वाली रासमण्डल में सौन्दर्यशालिनी वृन्दावनविनोदिनी तथा चित्रावली नाम से प्रसिद्ध शतश्रृङ्गपर्वत की अधिदेवी हो। तुम किसी कल्प में दक्ष की कन्या और किसी कल्प में हिमालय की पुत्री हो जाती हो। देवमाता अदिति और सबकी आधारस्वरूपा पृथ्वी तुम्हीं हो। तुम्हीं गङ्गा, तुलसी, स्वाहा, स्वधा और सती हो। समस्त देवाङ्गनाएँ तुम्हारे अंशांश की अंशकाला से उत्पन्न हुई हैं। देवि! स्त्री, पुरुष और नपुंसक तुम्हारे ही रूप हैं। तुम वूक्षों में वृक्षरूपा हो और अंकुर-रूप से तुम्हारा सृजन हुआ है। तुम अगिन् में दाहिका शक्ति , जल में शीतलता, सूर्य में सदा तेज:स्वरूप तथा कान्तिरूप, पृथ्वी में गन्धरूप, आकाश में शब्दरूप, चन्द्रमा और कमलसमूह में सदा शोभारूप, सृष्टि में सृष्टिस्वरूप, पालन-कार्य में भलीभाँति पालन करने वाली, संहारकाल में महामारी और जल में जलरूप में वर्तमान रहती हो। तुम्हीं क्षुधा, तुम्हीं दया, तुम्हीं निद्रा, तुम्हीं तृष्णा, तुम्हीं बुद्धिरूपिणी, तुम्हीं तुष्टि, तुम्हीं पुष्टि, तुम्हीं श्रद्धा और तुम्हीं स्वयं क्षमा हो। तुम स्वयं शान्ति, भ्रान्ति और कान्ति हो तथा कीर्ति भी तुम्हीं हो। तुम लज्जा तथा भोग-मोक्ष्ज्ञ-स्वरूपिणी माया हो। तुम सर्वशक्ति स्वरूपा और सम्पूर्ण सम्पत्ति प्रदान करने वाली हो। वेद में भी तुम अनिर्वचनीय हो, अत: कोई भी तुम्हें यथार्थरूप से नही जानता। सुरेश्वरि! न तो सहस्त्र मुखवाले शेष तुम्हारा स्तवन करने में समर्थ हैं, न वेदों में वर्णन करने की शक्ति है और न सरस्वती ही तुम्हारा बखान कर सकती है; फिर कोई विद्वान कैसे कर सकता है? महेश्वरि! जिसका स्तवन स्वयं ब्रह्मा और सनातन भगवान् विष्णु नहीं कर सकते, उसकी स्तुति युद्ध से भयभीत हुआ मैं अपने पाँच मुखों द्वारा कैसे कर सकता हूँ? अत: महामाये! तुम मुझपर कृपा करके मेरे शत्रु का विनाश कर दो।

रचनाकार
इस स्तोत्र का स्तवन भगवती दुर्गा को प्रसन्न करने के लिए भगवान् शिव ने किया था। ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड के उद्धृत इस स्तोत्र द्वारा स्तवन करके शम्भु ने त्रिपुरासुर का वध किया था। यह स्तोत्रराज संपूर्ण अज्ञान को नाश करने वाला तथा मनोरथों को पूरा करने वाला है |

भगवती की प्रीती, प्रस्सनार्थ व कृपा प्राप्ति हेतु कुछ विशेष लाभकारी नित्य पठनीय भगवती स्तोत्र व पाठ...!!!

1- श्री दुर्गा बत्तीस नामावली -

यह अत्यन्त गोपनीय, रहस्य व दुर्लभ है नामावली है । यह बत्तीस नामों की माला व स्तोत्र सब प्रकार की आपत्ति, विपत्ति, बाधा, क्लेश, कस्ट, दुःख  का विनाश करने वाला कहा गया है । शास्त्रानुसार तीनों लोकों में इसके समान माँ नव दुर्गा की कोई स्तुति नहीं है | 

दुर्गा दुर्गार्तिशमनी दुर्गापद्विनिवारिणी ।दुर्गमच्छेदिनी दुर्गसाधिनी दुर्गनाशिनी । ।दुर्गतोद्धारिणी दुर्गनिहन्त्री दुर्गमापहा ।दुर्गमज्ञानदा दुर्गदैत्यलोकदवानला । ।दुर्गमा दुर्गमालोका दुर्गमात्मस्वरूपिणी ।दुर्गमार्गप्रदा दुर्गमविद्या दुर्गमाश्रिता । ।दुर्गमज्ञानसंस्थाना दुर्गमध्यानभासिनी ।दुर्गमोहा दुर्गमगा दुर्गमार्थस्वरूपिणी । ।दुर्गमासुरसंहन्त्री दुर्गमायुधधारिणी ।दुर्गमान्गी दुर्गमता दुर्गम्या दुर्गमेश्वरी । ।दुर्गभीमा दुर्गभामा दुर्गभा दुर्गदारिणी ।नामावलिमिमां यस्तु दुर्गाया मम मानवः । । 

नित्य प्रात: वन्दनीय स्तोत्र् -


2-   || चन्द्रार्कचूडामणिं स्तोत्र् ||

श्रीदेव्याप्रात: स्मरणम् चाञ्चल्यारुणलोचनाञ्चितकृपां चन्द्रार्कचूडामणिं
चारुस्मेरमुखां चराचरजगत्संरक्षणीं सत्पदाम्।
चञ्चच्चम्पकनासिकाग्रविलसन्मुक्तामणीरञ्जितां
श्रीशैलस्थलवासिनीं भगवतीं श्रीमातरं भावये॥1॥
कस्तूरीतिलकाञ्चितेन्दुविलसत्प्रोद्भासिभालस्थलीं
कर्पूरद्रवमिश्रचूर्णखदिरामोदोल्लसद्वीटिकाम्।
लोलापाङ्गतरङ्गितैरधिकृपासारैर्नतानन्दिनीं
श्रीशैलस्थलवासिनीं भगवतीं श्रीमातरं भावये॥2॥

महिमा
 जो मनुष्य प्रात:काल उठकर शिव का ध्यान कर प्रतिदिन इन तीनों श्लोकों का पाठ करते हैं, वे लोग अनेक जन्मों के सञ्चित दु:खसमूह से मुक्त होकर शिवजी के उसी कल्याणमय पद को पाते हैं॥4॥

रचनाकार 
 इसकी रचना श्रीशङ्कराचार्य जी ने की थी। यह महान दैवि शक्ति को देने वाला स्तोत्र है ! हमे शरण दो !

3- भगवती स्तोत्र

श्रीभगवतीस्तोत्रम शक्ति रूपेण देवी भगवती दुर्गा की स्तुति में कहा गया स्तोत्र है। इसके अनेक उवाच हैं, जो कि निम्नलिखित हैं।

स्तोत्र -
जय भगवति देवि नमो वरदे जय पापविनाशिनि बहुफलदे।जय शुम्भनिशुम्भकपालधरे प्रणमामि तु देवि नरार्तिहरे॥1॥जय चन्द्रदिवाकरनेत्रधरे जय पावकभूषितवक्त्रवरे।जय भैरवदेहनिलीनपरे जय अन्धकदैत्यविशोषकरे॥2॥जय महिषविमर्दिनि शूलकरे जय लोकसमस्तकपापहरे।जय देवि पितामहविष्णुनते जय भास्करशक्रशिरोवनते॥3॥जय षण्मुखसायुधईशनुते जय सागरगामिनि शम्भुनुते।जय दु:खदरिद्रविनाशकरे जय पुत्रकलत्रविवृद्धिकरे॥4॥जय देवि समस्तशरीरधरे जय नाकविदर्शिनि दु:खहरे।जय व्याधिविनाशिनि मोक्ष करे जय वाञ्िछतदायिनि सिद्धिवरे॥5॥एतद्व्यासकृतं स्तोत्रं य: पठेन्नियत: शुचि:।गृहे वा शुद्धभावेन प्रीता भगवती सदा॥6॥

भावार्थ-
हे वरदायिनी देवि! हे भगवति! तुम्हारी जय हो। हे पापों को नष्ट करने वाली और अनन्त फल देने वाली देवि। तुम्हारी जय हो! हे शुम्भनिशुम्भ के मुण्डों को धारण करने वाली देवि! तुम्हारी जय हो। हे मुष्यों की पीडा हरने वाली देवि! मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ॥1॥ हे सूर्य-चन्द्रमारूपी नेत्रों को धारण करने वाली! तुम्हारी जय हो। हे अग्नि के समान देदीप्यामान मुख से शोभित होने वाली! तुम्हारी जय हो। हे भैरव-शरीर में लीन रहने वाली और अन्धकासुरका शोषण करने वाली देवि! तुम्हारी जय हो, जय हो॥2॥ हे महिषसुर का मर्दन करने वाली, शूलधारिणी और लोक के समस्त पापों को दूर करने वाली भगवति! तुम्हारी जय हो। ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य और इन्द्र से नमस्कृत होने वाली हे देवि! तुम्हारी जय हो, जय हो॥3॥ सशस्त्र शङ्कर और कार्तिकेयजी के द्वारा वन्दित होने वाली देवि! तुम्हारी जय हो। शिव के द्वारा प्रशंसित एवं सागर में मिलने वाली गङ्गारूपिणि देवि! तुम्हारी जय हो। दु:ख और दरिद्रता का नाश तथा पुत्र-कलत्र की वृद्धि करने वाली हे देवि! तुम्हारी जय हो, जय हो॥4॥ हे देवि! तुम्हारी जय हो। तुम समस्त शरीरों को धारण करने वाली, स्वर्गलोक का दर्शन करानेवाली और दु:खहारिणी हो। हे व्यधिनाशिनी देवि! तुम्हारी जय हो। मोक्ष तुम्हारे करतलगत है, हे मनोवाच्छित फल देने वाली अष्ट सिद्धियों से सम्पन्न परा देवि! तुम्हारी जय हो॥5॥

महिमा -
 जो कहीं भी रहकर पवित्र भाव से नियमपूर्वक इस व्यासकृत स्तोत्र का पाठ करता है अथवा शुद्ध भाव से घर पर ही पाठ करता है, उसके ऊपर भगवती सदा ही प्रसन्न रहती हैं॥6॥

रचनाकार-
भगवती के इस स्तोत्र की रचना व्यास जी ने की थी।


4- श्रीकृष्णकृतं दुर्गास्तोत्रम्

श्रीकृष्ण उवाच
त्वमेवसर्वजननी मूलप्रकृतिरीश्वरी। त्वमेवाद्या सृष्टिविधौ स्वेच्छया त्रिगुणात्मिका॥
कार्यार्थे सगुणा त्वं च वस्तुतो निर्गुणा स्वयम्। परब्रह्मस्वरूपा त्वं सत्या नित्या सनातनी॥
तेज:स्वरूपा परमा भक्त ानुग्रहविग्रहा। सर्वस्वरूपा सर्वेशा सर्वाधारा परात्परा॥
सर्वबीजस्वरूपा च सर्वपूज्या निराश्रया। सर्वज्ञा सर्वतोभद्रा सर्वमङ्गलमङ्गला॥
सर्वबुद्धिस्वरूपा च सर्वशक्ति स्वरूपिणी। सर्वज्ञानप्रदा देवी सर्वज्ञा सर्वभाविनी।
त्वं स्वाहा देवदाने च पितृदाने स्वधा स्वयम्। दक्षिणा सर्वदाने च सर्वशक्ति स्वरूपिणी।
निद्रा त्वं च दया त्वं च तृष्णा त्वं चात्मन: प्रिया। क्षुत्क्षान्ति: शान्तिरीशा च कान्ति: सृष्टिश्च शाश्वती॥
श्रद्धा पुष्टिश्च तन्द्रा च लज्जा शोभा दया तथा। सतां सम्पत्स्वरूपा श्रीर्विपत्तिरसतामिह॥
प्रीतिरूपा पुण्यवतां पापिनां कलहाङ्कुरा। शश्वत्कर्ममयी शक्ति : सर्वदा सर्वजीविनाम्॥
देवेभ्य: स्वपदो दात्री धातुर्धात्री कृपामयी। हिताय सर्वदेवानां सर्वासुरविनाशिनी॥
योगनिद्रा योगरूपा योगदात्री च योगिनाम्। सिद्धिस्वरूपा सिद्धानां सिद्धिदाता सिद्धियोगिनी॥
माहेश्वरी च ब्रह्माणी विष्णुमाया च वैष्णवी। भद्रदा भद्रकाली च सर्वलोकभयंकरी॥
ग्रामे ग्रामे ग्रामदेवी गृहदेवी गृहे गृहे। सतां कीर्ति: प्रतिष्ठा च निन्दा त्वमसतां सदा॥
महायुद्धे महामारी दुष्टसंहाररूपिणी। रक्षास्वरूपा शिष्टानां मातेव हितकारिणी॥
वन्द्या पूज्या स्तुता त्वं च ब्रह्मादीनां च सर्वदा। ब्राह्मण्यरूपा विप्राणां तपस्या च तपस्विनाम्॥
विद्या विद्यावतां त्वं च बुद्धिर्बुद्धिमतां सताम्। मेधास्मृतिस्वरूपा च प्रतिभा प्रतिभावताम्॥
राज्ञां प्रतापरूपा च विशां वाणिज्यरूपिणी। सृष्टौ सृष्टिस्वरूपा त्वं रक्षारूपा च पालने॥
तथान्ते त्वं महामारी विश्वस्य विश्वपूजिते। कालरात्रिर्महारात्रिर्मोहरात्रिश्च मोहिनी॥
दुरत्यया मे माया त्वं यया सम्मोहितं जगत्। यया मुग्धो हि विद्वांश्च मोक्षमार्ग न पश्यति॥
इत्यात्मना कृतं स्तोत्रं दुर्गाया दुर्गनाशनम्। पूजाकाले पठेद् यो हि सिद्धिर्भवति वाञ्िछता॥
वन्ध्या च काकवन्ध्या च मृतवत्सा च दुर्भगा। श्रुत्वा स्तोत्रं वर्षमेकं सुपुत्रं लभते ध्रुवम्॥
कारागारे महाघोरे यो बद्धो दृढबन्धने। श्रुत्वा स्तोत्रं मासमेकं बन्धनान्मुच्यते ध्रुवम्॥
यक्ष्मग्रस्तो गलत्कुष्ठी महाशूली महाज्वरी। श्रुत्वा स्तोत्रं वर्षमेकं सद्यो रोगात् प्रमुच्यते॥
पुत्रभेदे प्रजाभेदे पत्‍‌नीभेदे च दुर्गत:। श्रुत्वा स्तोत्रं मासमेकं लभते नात्र संशय:॥
राजद्वारे श्मशाने च महारण्ये रणस्थले। हिंस्त्रजन्तुसमीपे च श्रुत्वा स्तोत्रं प्रमुच्यते॥
गृहदाहे च दावागनै दस्युसैन्यसमन्विते। स्तोत्रश्रवणमात्रेण लभते नात्र संशय:॥
महादरिद्रो मूर्खश्च वर्ष स्तोत्रं पठेत्तु य:। विद्यावान धनवांश्चैव स भवेन्नात्र संशय:॥

भावार्थ-
श्रीकृष्ण बोले - देवि! तुम्हीं सबकी जननी, मूलप्रकृति ईश्वरी हो। तुम्हीं सृष्टिकार्य में आद्याशक्ति हो। तुम अपनी इच्छा से त्रिगुणमयी बनी हुई हो। कार्यवश सगुण रूप धारण करती हो। वास्तव में स्वयं निर्गुणा हो। सत्या, नित्या, सनातनी एवं परब्रह्मस्वरूपा हो, परमा तेज:स्वरूपा हो। भक्त ों पर कृपा करने के लिये दिव्य शरीर धारण करती हो। तुम सर्वस्वरूपा, सर्वेश्वरी, सर्वाधारा, परात्परा, सर्वबीजस्वरूपा, सर्वपूज्या, निराश्रया, सर्वज्ञा, सर्वतोभद्रा (सब ओर से मङ्गलमयी), सर्वमङ्गलमङ्गला, सर्वबुद्धिस्वरूपा, सर्वशक्ति रूपिणी, सर्वज्ञानप्रदा देवी, सब कुछ जानने वाली और सबको उत्पन्न करने वाली हो। देवताओं के लिये हविष्य दान करने के निमित्त तुम्हीं स्वाहा हो, पितरों के लिये श्राद्ध अर्पण करने के निमित्त तुम स्वयं ही स्वधा हो, सब प्रकार के दानयज्ञ में दक्षिणा हो तथा सम्पूर्ण शक्ति यां तुम्हारा ही स्वरूप हैं। तुम निद्रा, दया और मन को प्रिय लगने वाली तृष्णा हो। क्षुधा, क्षमा, शान्ति, ईश्वरी, कान्ति तथा शाश्वती सृष्टि भी तुम्हीं हो। तुम्हीं श्रद्धा, पुष्टि, तन्द्रा, लज्जा, शोभा और दया हो। सत्पुरुषों के यहाँ सम्पत्ति और दुष्टों के घर में विपत्ति भी तुम्हीं हो। तुम्हीं पुण्यवानों के लिये प्रीतिरूप हो, पापियों के लिये कलह का अङ्कुर हो तथा समस्त जीवों की कर्ममयी शक्ति भी सदा तुम्हीं हो। देवताओं को उनका पद प्रदान करने वाली तुम्हीं हो। धाता (ब्रह्मा)-का भी धारण-पोषण करने वाली दयामयी धात्री तुम्हीं हो। सम्पूर्ण देवताओं के हित के लिये तुम्हीं समस्त असुरों का विनाश करती हो। तुम योगनिद्रा हो। योग तुम्हारा स्वरूप है। तुम योगियों को योग प्रदान करने वाली हो। सिद्धों की सिद्धि भी तुम्हीं हो। तुम सिद्धिदायिनी और सिद्धयोगिनी हो। ब्रह्माणी, माहेश्वरी, विष्णुमाया, वैष्णवी तथा भद्रदायिनी भद्रकाली भी तुम्हीं हो। तुम्हीं समस्त लोकों के लिये भय उत्पन्न करती हो। गाँव-गाँव में ग्रामदेवी और घर-घर में गृहदेवी भी तुम्हीं हो। तुम्हीं सत्पुरुषों की कीर्ति और प्रतिष्ठा हो। दुष्टों की होने वाली सदा निन्दा भी तुम्हारा ही स्वरूप है। तुम महायुद्ध में दुष्टसंहाररूपिणी महामारी हो और शिष्ट पुरुषों के लिये माता की भाँति हितकारिणी एवं रक्षारूपिणी हो। ब्रह्मा आदि देवताओं ने सदा तुम्हारी वन्दना, पूजा एवं स्तुति की है। ब्राह्मणों की ब्राह्मणता और तपस्वीजनों की तपस्या भी तुम्हीं हो, विद्वानों की विद्या बुद्धिमानों की बुद्धि, सत्पुरुषों की मेधा और स्मृति तथा प्रतिभाशाली पुरुषों की प्रतिभा भी तुम्हारा ही स्वरूप है। राजाओं का प्रताप और वैश्यों का वाणिज्य भी तुम्हीं हो। विश्वपूजिते! सृष्टिकाल में सृष्टिरूपिणी, पालनकाल में रक्षारूपिणी तथा संहारकाल में विश्व का विनाश करने वाली महामारीरूपिणी भी तुम्हीं हो। तुम्हीं कालरात्रि, महारात्रि तथा मोहिनी, मोहरात्रि हो; तुम मेरी दुर्लङ्घय माया हो, जिसने सम्पूर्ण जगत् को मोहित कर रखा है तथा जिससे मुग्ध हुआ विद्वान पुरुष भी मोक्षमार्ग को नहीं देख पाता।

महिमा
इस प्रकार परमात्मा श्रीकृष्ण द्वारा किये गये दुर्गा के दुर्गम संकटनाशनस्तोत्र का जो पूजाकाल में पाठ करता है, उसे मनोवाञ्िछत सिद्धि प्राप्त होती है। जो नारी वन्ध्या, काकवन्ध्या, मृतवत्सा तथा दुर्भगा है, वह भी एक वर्ष तक इस स्तोत्र का श्रवण करके निश्चय ही उत्तम पुत्र प्राप्त कर लेती है। जो पुरुष अत्यन्त घोर कारागार के भीतर दृढ बन्धन में बँधा हुआ है, वह एक ही मास तक इस स्तोत्र को सुन ले तो अवश्य ही बन्धन से मुक्त हो जाता है। जो मनुष्य राजयक्ष्मा, गलित कोढ, महाभयंकर शूल और महान् ज्वर से ग्रस्त है, वह एक वर्ष तक इस स्तोत्र का श्रवण कर ले तो शीघ्र ही रोग से छुटकारा पा जाता है। पुत्र, प्रजा और पत्‍‌नी के साथ भेद (कलह आदि) होने पर यदि एक मास तक इस स्तोत्र को सुने तो इस संकट से मुक्ति प्राप्त होती है, इसमें संशय नहीं है। राजद्वार, श्मशान, विशाल वन तथा रणक्षेत्र में और हिंसक जन्तु के समीप भी इस स्तोत्र के पाठ और श्रवण से मनुष्य संकट से मुक्त हो जाता है। यदि घर में आग लगी हो, मनुष्य दावानल से घिर गया हो अथवा डाकुओं की सेना में फँस गया हो तो इस स्तोत्र के श्रवण मात्र से वह उस संकट से पार हो जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं है। जो महादरिद्र और मूर्ख है, वह भी एक वर्ष तक इस स्तोत्र को पढे तो निस्संदेह विद्वान और धनवान् हो जाता है।

रचनाकार
ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृति खंड से उद्धृत इस स्तोत्र का स्तवन भगवान् श्रीकृष्ण ने भगवती दुर्गा को प्रसन्न करने के लिए किया था।


5-परशुरामकृतं दुर्गास्तात्रम्

परशुराम उवाच
श्रीकृष्णस्य च गोलोके परिपूर्णतमस्य च:आविर्भूता विग्रहत: पुरा सृष्ट्युन्मुखस्य च॥
सूर्यकोटिप्रभायुक्त ा वस्त्रालंकारभूषिता। वह्निशुद्धांशुकाधाना सुस्मिता सुमनोहरा॥
नवयौवनसम्पन्ना सिन्दूरविन्दुशोभिता। ललितं कबरीभारं मालतीमाल्यमण्डितम्॥
अहोऽनिर्वचनीया त्वं चारुमूर्ति च बिभ्रती। मोक्षप्रदा मुमुक्षूणां महाविष्णोर्विधि: स्वयम्॥
मुमोह क्षणमात्रेण दृ त्वां सर्वमोहिनीम्। बालै: सम्भूय सहसा सस्मिता धाविता पुरा॥
सद्भि: ख्याता तेन राधा मूलप्रकृतिरीश्वरी। कृष्णस्त्वां सहसाहूय वीर्याधानं चकार ह॥
ततो डिम्भं महज्जज्ञे ततो जातो महाविराट्। यस्यैव लोमकूपेषु ब्रह्माण्डान्यखिलानि च॥
तच्छृङ्गारक्रमेणैव त्वन्नि:श्वासो बभूव ह। स नि:श्वासो महावायु: स विराड् विश्वधारक:॥
तव घर्मजलेनैव पुप्लुवे विश्वगोलकम्। स विराड् विश्वनिलयो जलराशिर्बभूव ह॥
ततस्त्वं पञ्चधाभूय पञ्चमूर्तीश्च बिभ्रती। प्राणाधिष्ठातृमूर्तिर्या कृष्णस्य परमात्मन:॥
कृष्णप्राणाधिकां राधां तां वदन्ति पुराविद:॥
वेदाधिष्ठातृमूर्तियां वेदाशास्त्रप्रसूरपि। तौ सावित्रीं शुद्धरूपां प्रवदन्ति मनीषिण:॥
ऐश्वर्याधिष्ठातृमूर्ति: शान्तिश्च शान्तरूपिणी। लक्ष्मीं वदन्ति संतस्तां शुद्धां सत्त्‍‌वस्रूपिणीम्॥
रागाधिष्ठातृदेवी या शुक्लमूर्ति: सतां प्रसू:। सरस्वतीं तां शास्त्रज्ञां शास्त्रज्ञा: प्रवदन्त्यहो॥
बुद्धिर्विद्या सर्वशक्ते र्या मूर्तिरधिदेवता। सर्वमङ्गलमङ्गल्या सर्वमङ्गलरूपिणी॥
सर्वमङ्गलबीजस्य शिवस्य निलयेऽधुना॥
शिवे शिवास्वरूपा त्वं लक्ष्मीर्नारायणान्तिके। सरस्वती च सावित्री वेदसू‌र्ब्रह्मण: प्रिया॥
राधा रासेश्वरस्यैव परिपूर्णतमस्य च। परमानन्दरूपस्य परमानन्दरूपिणी॥
त्वत्कलांशांशकलया देवानामपि योषित:॥
त्वं विद्या योषित: सर्वास्त्वं सर्वबीजरूपिणी। छाया सूर्यस्य चन्द्रस्य रोहिणी सर्वमोहिनी॥
शची शक्रस्य कामस्य कामिनी रतिरीश्वरी। वरुणानी जलेशस्य वायो: स्त्री प्राणवल्लभा॥
वह्ने: प्रिया हि स्वाहा च कुबेरस्य च सुन्दरी। यमस्य तु सुशीला च नैर्ऋतस्य च कैटभी॥
ईशानस्य शशिकला शतरूपा मनो: प्रिया। देवहूति: कर्दमस्य वसिष्ठस्याप्यरुन्धती॥
लोपामुद्राप्यगस्त्यस्य देवमातादितिस्तथा। अहल्या गौतमस्यापि सर्वाधारा वसुन्धरा॥
गङ्गा च तुलसी चापि पृथिव्यां या: सरिद्वरा:। एता: सर्वाश्च या ह्यन्या: सर्वास्त्वत्कलयाम्बिके॥
गृहलक्ष्मीगर्ृहे नृणांराजलक्ष्मीश्च राजसु। तपस्विनां तपस्या त्वं गायत्री ब्राह्मणस्य च॥
सतां सत्त्‍‌वस्वरूपा त्वमसतां कलहाङ्कुरा। ज्योतीरूपा निर्गुणस्य शक्ति स्त्वं सगुणस्य च॥
सूर्ये प्रभास्वरूपा त्वं दाहिका च हुताशने। जले शैत्यस्वरूपा च शोभारूपा निशाकरे॥
त्वं भूमौ गन्धरूपा च आकाशे शब्दरूपिणी। क्षुत्पिपासादयस्त्वं च जीविनां सर्वशक्त य:॥
सर्वबीजस्वरूपा त्वं संसारे साररूपिणी। स्मूतिर्मेधा च बुद्धिर्वा ज्ञानशक्ति र्विपश्चिताम्॥
कृष्णेन विद्या या दत्ता सर्वज्ञानप्रसू: शुभा। शूलिने कृपया सा त्वं यतो मृत्युञ्जय: शिव:॥
सृष्टिपालनसंहारशक्त यस्त्रिविधाश्च या:। ब्रह्मविष्णुमहेशानां सा त्वमेव नमोऽस्तु ते॥
मधुकैटभभीत्या च त्रस्तो धाता प्रकम्पित:। स्तुत्वा मुमोच यां देवीं तां मूधनर् प्रणमाम्यहम्॥
मधुकैटभयोर्युद्धे त्रातासौ विष्णुरीश्वरीम्। बभूव शक्ति मान् स्तुत्वा तां दुर्गा प्रणमाम्यहम्॥
त्रिपुरस्य महायुद्धे सरथे पतिते शिवे। यां तुष्टुवु: सुरा: सर्वे तां दुर्गा प्रणमाम्यहम्॥
विष्णुना वृषरूपेण स्वयं शम्भु: समुत्थित: जघान त्रिपुरं स्तुत्वा तां दुर्गा प्रणमाम्यहम्॥
यदाज्ञया वाति वात: सूर्यस्तपति संततम्। वर्षतीन्द्रो दहत्यगिन्स्तां दुर्गा प्रणमाम्यहम्॥
यदाज्ञया हि कालश्च शश्वद् भ्रमति वेगत:। मृत्युश्चरति जन्त्वोघे तां दुर्गा प्रणमाम्यहम्॥
स्त्रष्टा सृजति सृष्टिं च पाता पाति यदाज्ञया। संहर्ता संहरेत् काले तां दुर्गा प्रणमाम्यहम्॥
ज्योति:स्वरूपो भगवाञ्छ्रीकृष्णो निर्गुण: स्वयम्। यया विना न शक्त श्च सृष्टिं कर्तु नमामि ताम्॥
रक्ष रक्ष जगन्मातरपराधं क्षमस्व ते। शिशूनामपराधेन कुतो माता हि कुप्यति॥
इत्युक्त्वा पर्शुरामश्च प्रणम्य तां रुरोद ह। तुष्टा दुर्गा सम्भ्रमेण चाभयं च वरं ददौ॥
अमरो भव हे पुत्र वत्स सुस्थिरतां व्रज। शर्वप्रसादात् सर्वत्र ज्योऽस्तु तव संततम्॥
सर्वान्तरात्मा भगवांस्तुष्टोऽस्तु संततं हरि:। भक्ति र्भवतु ते कृष्णे शिवदे च शिवे गुरौ॥
इष्टदेवे गुरौ यस्य भक्ति र्भवति शाश्वती। तं हन्तु न हि शक्त ाश्च रुष्टाश्च सर्वदेवता:॥
श्रीकृष्णस्य च भक्त स्त्वं शिष्यो हि शंकरस्य च। गुरुपत्‍‌नीं स्तौषि यस्मात् कस्त्वां हन्तुमिहेश्वर:॥
अहो न कृष्णभक्त ानामशुभं विद्यते क्वचित्। अन्यदेवेषु ये भक्त ा न भक्त ा वा निरेङ्कुशा:॥
चन्द्रमा बलवांस्तुष्टो येषां भाग्यवतां भृगो। तेषां तारागणा रुष्टा: किं कुर्वन्ति च दुर्बला:॥
यस्य तुष्ट: सभायां चेन्नरदेवो महान् सुखी। तस्य किं वा करिष्यन्ति रुष्टा भृत्याश्च दुर्बला:॥
इत्युक्त्वा पार्वती तुष्टा दत्त्‍‌वा रामं शुभाशिषम्। जगामान्त:पुरं तूर्ण हरिशब्दो बभूव ह॥
स्तोत्रं वै काण्वशाखोक्तं पूजाकाले च य: पठेत्। यात्राकाले च प्रातर्वा वाञ्िछतार्थ लभेद्ध्रुवम॥
पुत्रार्थी लभते पुत्रं कन्यार्थी कन्यकां लभेत्। विद्यार्थी लभते विद्यां प्रजार्थी चाप्रुयात् प्रजाम्॥
भ्रष्टराज्यो लभेद् राज्यं नष्टवित्तो धनं लभेत्॥
यस्य रुष्टो गुरुर्देवो राजा वा बान्धवोऽथवा। तस्य तुष्टश्च वरद: स्तोत्रराजप्रसादत:॥
दस्युग्रस्तोऽहिग्रस्तश्च शत्रुग्रस्तो भयानक:। व्याधिग्रस्तो भवेन्मुक्त : स्तोत्रस्मरणमात्रत:॥
राजद्वारे श्मशाने च कारागारे च बन्धने। जलराशौ निमगन्श्च मुक्त स्तत्स्मृतिमात्रत:॥
स्वामिभेदे पुत्रभेदे मित्रभेदे च दारुणे। स्तोत्रस्मरणमात्रेण वाञ्िछतार्थ लभेद् ध्रुवम॥
कृत्वा हविष्यं वर्ष च स्तोत्रराजं श्रृणोति या। भक्त्या दुर्गा च सम्पूज्य महावन्ध्या प्रसूयते॥
लभते सा दिव्यपुत्रं ज्ञानिनं चिरजीविनम्। असौभाग्या च सौभाग्यं षण्मासश्रवणाल्लभेत्॥
नवमासं काकवन्ध्या मृतवत्सा च भक्ति त:। स्तोत्रराजं या श्रृणोति सा पुत्रं लभते धु्रवम्॥
कन्यामाता पुत्रहीना पञ्जमासं श्रृणोति या। घटे सम्पूज्य दुर्गा च सा पुत्रं लभते धु्रवम्॥

भावार्थ
परशुराम ने कहा - प्राचीन काल की बात है; गोलोक में जब परिपूर्णतम श्रीकृष्ण सृष्टिरचना के लिए उद्यत हुए, उस समय उनके शरीर से तुम्हारा प्राकटय हुआ था। तुम्हारी कान्ति करोडों सूर्यो के समान थी। तुम वस्त्र और अलंकारों से विभूषित थीं। शरीर पर अगिन् में तपाकर शुद्ध की हुई साडी का परिधान था। नव तरुण अवस्था थी। ललाटपर सिंदूर की बेंदी शोभित हो रही थी। मालती की मालाओं से मण्डित गुँथी हुई सुन्दर चोटी थी। बडा ही मनोहर रूप था। मुख पर मन्द मुस्कान थी। अहो! तुम्हारी मूर्ति बडी सुन्दर थी, उसका वर्णन करना कठिन है। तुम मुमुक्षुओं को मोक्ष प्रदान करने वाली तथा स्वयं महाविष्णु की विधि हो। बाले! तुम सबको मोहित कर लेने वाली हो। तुम्हें देखकर श्रीकृष्ण उसी क्षण मोहित हो गये। तब तुम उनसे सम्भावित होकर सहसा मुस्कराती हुई भाग चलीं। इसी कारण सत्पुरुष तुम्हें मूलप्रकृति ईश्वरी राधा कहते हैं। उस समय सहसा श्रीकृष्ण ने तुम्हें बुलाकर वीर्य का आधान किया। उससे एक महान् डिम्ब उत्पन्न हुआ। उस डिम्ब से महाविराट् की उत्पत्ति हुई, जिसके रोमकूपों में समस्त ब्रह्माण्ड स्थित हैं। फिर राधा के श्रृङ्गारक्रम से तुम्हारा नि:श्वास प्रकट हुआ। वह नि:श्वास महावायु हुआ और वही विश्व को धारण करने वाला विराट् कहलाया। तुम्हारे पसीने से विश्वगोलक पिघल गया। तब विश्व का निवासस्थान वह विराट् जल की राशि हो गया। तब तुमने अपने को पाँच भागों में विभक्त करके पाँच मूर्ति धारण कर ली। उनमें परमात्मा श्रीकृष्ण की जो प्राणाधिष्ठात्री मूर्ति है, उसे भविष्यवेत्ता लोग कृष्णप्राणाधिका राधा कहते हैं। जो मूर्ति वेद-शास्त्रों की जननी तथा वेदाधिष्ठात्री है, उस शुद्धरूपा मूर्ति को मनीषीगण सावित्री नाम से पुकारते हैं। जो शान्ति तथा शान्तरूपिणी ऐश्वर्य की अधिष्ठात्री मूर्ति है, उस सत्त्‍‌वस्वरूपिणी शुद्ध मुर्ति को संतलोग लक्ष्मी नाम से अभिहित करते हैं। अहो! जो राग की अधिष्ठात्री देवी तथा सत्पुरुषों को पैदा करने वाली है, जिसकी मूर्ति शुक्ल वर्ण की है, उस शास्त्र की ज्ञाता मूर्ति को शास्त्रज्ञ सरस्वती कहते हैं। जो मूर्ति बुद्धि, विद्या, समस्त शक्ति की अधिदेवता, सम्पूर्ण मङ्गलों की मङ्गलस्थान, सर्वमङ्गलरूपिणी और सम्पूर्ण मङ्गलों की कारण है, वही तुम इस समय शिव के भवन में विराजमान हो।
तुम्हीं शिव के समीप शिवा (पार्वती), नारायण के निकट लक्ष्मी और ब्रह्मा की प्रिया वेदजननी सावित्री और सरस्वती हो। जो पूरिपूर्णतम एवं परमानन्दस्वरूप हैं, उन रासेश्वर श्रीकृष्ण की तुम परमानन्दरूपिणी राधा हो। देवाङ्गनाएँ भी तुम्हारे कलांश की अंशकला से प्रादुर्भूत हुई हैं। सारी नारियाँ तुम्हारी विद्यास्वरूपा हैं और तुम सबकी कारणरूपा हो। अम्बिके! सूर्य की पत्‍‌नी छाया, चन्द्रमा की भार्या सर्वमोहिनी रोहिणी, इन्द्र की पत्‍‌नी शची, कामदेव की पत्‍‌नी ऐश्वर्यशालिनी रति, वरुण की पत्‍‌नी वरुणानी, वायु की प्राणप्रिया स्त्री, अगिन् की प्रिया स्वाहा, कुबेर की सुन्दरी भार्या, यम की पत्‍‌नी सुशीला, नैर्ऋत की जाया कैटभी, ईशान की पत्‍‌नी शशिकला, मनु की प्रिया शतरूपा, कर्दम की भार्या देवहूति, वसिष्ठ की पत्‍‌नी अरुन्धती, देवमाता अदिति, अगस्त्य मुनि की प्रिया लोपामुद्रा, गौतम की पत्‍‌नी अहल्या, सबकी आधाररूपा वसुन्धरा, गङ्गा, तुलसी तथा भूतल की सारी श्रेष्ठ सरिताएँ-ये सभी तथा इनके अतिरिक्ति जो अन्य स्त्रियाँ हैं, वे सभी तुम्हारी कला से उत्पन्न हुई हैं।
तुम मनुष्यों के घर में गृहलक्ष्मी, राजाओं के भवनों में राजलक्ष्मी, तपस्वियों की तपस्या और ब्राह्मणों की गायत्री हो। तुम सत्पुरुषों के लिए सत्त्‍‌वस्वरूप और दुष्टों के लिये कलह की अङ्कुर हो। निर्गुण की ज्योति और सगुण की शक्ति तुम्हीं हो। तुम सूर्य में प्रभा, अगिन् में दाहिका-शक्ति , जल में शीतलता और चन्द्रमा में शोभा हो। भूमि में गन्ध और आकाश में शब्द तुम्हारा ही रूप है। तुम भूख-प्यास आदि तथा प्राणियों की समस्त शक्ति हो। संसार में सबकी उत्पत्ति की कारण, साररूपा, स्मृति, मेधा, बुद्धि अथवा विद्वानों की ज्ञानशक्ति तुम्हीं हो। श्रीकृष्ण ने शिवजी को कृपापूर्वक सम्पूर्ण ज्ञान की प्रसविनी जो शुभ विद्या प्रदान की थी, वह तुम्हीं हो; उसी से शिवजी मृत्युञ्जय हुए हैं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश की सृष्टि, पालन और संहार करने वाली जो त्रिविध शक्ति याँ हैं, उनके रूप में तुम्हीं विद्यमान हो; अत: तुम्हें नमस्कार है। जब मधु-कैटभ के भय से डरकर ब्रह्मा काँप उठे थे, उस समय जिनकी स्तुति करके वे भयमुक्त हुए थे; उन देवी को मैं सिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मधु-कैटभ के युद्ध में जगत् के रक्षक ये भगवान् विष्णु जिन परमेश्वरी का स्तवन करके शक्ति मान् हुए थे, उन दुर्गा को मैं नमस्कार करता हूँ। त्रिपुर के महायुद्ध में रथसहित शिवजी के गिर जाने पर सभी देवताओं ने जिनकी स्तुति की थी; उन दुर्गा को मैं प्रणाम करता हूँ। जिनका स्तवन करके वृषरूपधारी विष्णु द्वारा उठाये गये स्वयं शम्भु ने त्रिपुर का संहार किया था; उन दुर्गा को मैं अभिवादन करता हूँ। जिनकी आज्ञा से निरन्तर वायु बहती है, सूर्य तपते हैं, इन्द्र वर्षा करते हैं और अगिन् जलाती है; उन दुर्गा को मैं सिर झुकाता हूँ। जिनकी आज्ञा से काल सदा वेगपूर्वक चक्क र काटता रहता है और मृत्यु जीव-समुदाय में विचरती रहती है; उन दुर्गा को मैं नमस्कार करता हूँ। जिनके आदेश से सृष्टिकर्ता सृष्टि की रचना करते हैं, पालनकर्ता रक्षा करते हैं और संहर्ता समय आने पर संहार करते हैं; उन दुर्गा को मैं प्रणाम करता हूँ। जिनके बिना स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण, जो ज्योति:स्वरूप एवं निर्गुण हैं, सृष्टि-रचना करने में समर्थ नहीं होते; उन देवी को मेरा नमस्कार है। जगज्जननी! रक्षा करो, रक्षा करो; मेरे अपराध को क्षमा कर दो। भला, कहीं बच्चे के अपराध करने से माता कुपित होती है।
इतना कहकर परशुराम उन्हें प्रणाम करके रोने लगे। तब दुर्गा प्रसन्न हो गयीं और शीघ्र ही उन्हें अभय का वरदान देती हुई बोलीं- हे वत्स! तुम अमर हो जाओ। बेटा! अब शान्ति धारण करो। शिवजी की कृपा से सदा सर्वत्र तुम्हारी विजय हो। सर्वान्तरात्मा भगवान् श्रीहरि सदा तुमपर प्रसन्न रहें। श्रीकृष्ण में तथा कल्याणदाता गुरुदेव शिव में तुम्हारी सुदृढ भक्ति बनी रहे; क्योंकि जिसकी इष्टदेव तथा गुरु में शाश्वती भक्ति होती है, उस पर यदि सभी देवता कुपित हो जायँ तो भी उसे मार नहीं सकते। तुम तो श्रीकृष्ण के भक्त और शंकर के शिष्य हो तथा मुझ गुरुपत्‍‌नी की स्तुति कर रहे हो; इसलिए किसकी शक्ति है जो तुम्हें मार सके। अहो! जो अन्यान्य देवताओं के भक्त हैं अथवा उनकी भक्ति न करके निरंकुश ही हैं, परंतु श्रीकृष्ण के भक्त हैं तो उनका कहीं भी अमङ्गल नहीं होता। भार्गव! भला, जिन भाग्यवानों पर बलवान् चन्द्रमा प्रसन्न हैं तो दुर्बल तारागण रुष्ट होकर उनका क्या बिगाड सकते हैं। सभा में महान आत्मबल से सम्पन्न सुखी नरेश जिसपर संतुष्ट है, उसका दुर्बल भृत्यवर्ग कुपित होकर क्या कर लेगा? यों कहकर पार्वती हर्षित हो परशुराम को शुभाशीर्वाद देकर अन्त:पुर में चली गयीं। तब तुरंत हरि-नाम का घोष गूँज उठा।

महिमा
जो मनुष्य इस काण्वशाखोक्त स्तोत्र का पूजा के समय, यात्रा के अवसर पर अथवा प्रात:काल पाठ करता है, वह अवश्य ही अपनी अभीष्ट वस्तु प्राप्त कर लेता है। इसके पाठ से पुत्रार्थी को पुत्र, कन्यार्थी को कन्या, विद्यार्थी को विद्या, प्रजार्थी को प्रजा, राज्यभ्रष्ट को राज्य और धनहीन को धन की प्राप्ति होती है। जिसपर गुरु, देवता, राजा अथवा बन्धु-बान्धव क्रुद्ध हो गये हों, उसके लिये ये सभी इस स्तोत्रराज की कृपा से प्रसन्न होकर वरदाता हो जाते हैं। जिसे चोर-डाकुओं ने घेर लिया हो, साँप ने डस लिया हो, जो भयानक शत्रु के चंगुल में फँस गया हो अथवा व्याधिग्रस्त हो; वह इस स्तोत्र के स्मरण मात्र से मुक्त हो जाता है। राजद्वार पर, श्मशान में, कारागार में और बन्धन में पडा हुआ तथा अगाध जलराशि में डूबता हुआ मनुष्य इस स्तोत्र के प्रभाव से मुक्त हो जाता है। स्वामिभेद, पुत्रभेद तथा भयंकर मित्रभेद के अवसर पर इस स्तोत्र के स्मरण मात्र से निश्चय ही अभीष्टार्थ की प्राप्ति होती है। जो स्त्री वर्षपर्यन्त भक्ति पूर्वक दुर्गा का भलीभाँति पूजन करके हविष्यान्न खाकर इस स्तोत्रराज को सुनती है, वह महावन्ध्या हो तो भी प्रसववाली हो जाती है। उसे ज्ञानी एवं चिरजीवी दिव्य पुत्र प्राप्त होता है। छ: महीने तक इसका श्रवण करने से दुर्भगा सौभाग्यवती हो जाती है। जो काकवन्ध्या और मृतवत्सा नारी भक्ति पूर्वक नौ मास तक इस स्तोत्रराज को सुनती है, वह निश्चय ही पुत्र पाती है। जो कन्या की माता तो है परंतु पुत्र से हीन है, वह यदि पाँच महीने तक कलश पर दुर्गा की सम्यक् पूजा करके इस स्तोत्र को श्रवण करती है तो उसे अवश्य ही पुत्र की प्राप्ति होती है।

रचनाकार
ब्रह्मवैवर्त पुराण में गणपति खण्ड से उद्धृत इस स्तोत्र का स्तवन परशुराम ने श्रीहरि के निर्देश पर माता दुर्गा (शिवा) को प्रसन्न करने के लिए किया था। परशुराम अपने गुरु शिव का आशीर्वाद लेने के लिए अन्त:पुर जाना चाहते थे। गणेश द्वारा रोके जाने पर दोनों में युद्ध हुआ जिसमें परशुराम ने शिव प्रदत्त फरसा चला दिया जिससे गणेश जी का एक दाँत टूट गया था (एक दंत पडा)। इससे कुपित होकर पार्वती परशुराम को मारने के लिए उद्यत हो गई। उसी समय भगवान् विष्णु बौने ब्राह्मण-बालक के रूप में उपस्थित हुए। उन्होंने पार्वती को समझाया तथा परशुराम को उनकी स्तुति करने का निर्देश दिया।