Wednesday, September 29, 2010

धन, यश, बल व अनंत फलदायक अनंत चतुर्दशी व्रत......!!

अनन्त चतुर्दशी बुधवार, 22 सितम्बर २०१० पर विशेष 

भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की चतुर्दशी को अनन्त चतुर्दशी कहा जाता है। धन,यश व बल की कामना को लेकर मनाया जाने वाला अनंत चतुर्दशी का पर्व भगवान अनन्त को सादर समर्पित है जो भगवान विष्णु का स्वरुप मने जाते है | इस दिन अनन्त भगवान की पूजा करके संकटों से रक्षा करने वाला अनन्त सूत्र बांधा जाता है। अनन्त चतुर्दशी के दिन अनन्त भगवान्‌ की पूजा की जाती है और अलोना (नमक रहित) व्रत रखा जाता है। इसमें उदयव्यापिनी तिथी ली जाती है, पूर्णिमा का समायोग होने से इसका फल और बढ जाता है ।यदि माध्यह्यान तक चतुर्दशी रहे तो और भी अच्छा है। भगवान की साक्षात् या कुशा से बनाई हुई सात कणों वाली शेष स्वरुप अनन्त की मूर्ति स्थापित करें।कहा जाता है कि जब पाण्डव जुए में अपना सारा राज-पाट हार कर वन में कष्ट भोग रहे थे, तब भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें अनन्त चतुर्दशी का व्रत करने की सलाह दी थी। धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने भाइयों तथा द्रौपदी के साथ पूरे विधि-विधान से यह व्रत किया तथा अनन्त सूत्र धारण किया। अनन्त चतुर्दशी-व्रत के प्रभाव से पाण्डव सब संकटों से मुक्त हो गए।

व्रत एवं पुजा विधान मंत्र :
 स्नान के बाद व्रतके लिये यह संकल्प करे -

‘ममाखिलपापक्षयपूर्वकशुभफलवृद्धये श्रीमदनन्तप्रीतिकामनया अनन्तव्रतमहं करिष्ये।’

 शास्त्रों में यद्यपि व्रत का संकल्प एवं पूजन किसी पवित्र नदी या सरोवर के तट पर करने का विधान है | तथापि ऐसा संभव न हो तो निवास व पूजा स्थान को स्वच्छ और सुशोभित करे ।वहाँ कलश स्थापित कर उसकी पूजा करे । तत्पश्चात्‌ कलश पर शेषशायी भगवान्‌ विष्णु की मुर्ति रखे और मुर्ति के सम्मुख चौदह ग्रन्थि युक्त अनन्त सूत्र (कच्चे सूत का डोरा) रखे। इसके बाद ‘ॐ अनन्ताय नमः’ इस नाम मन्त्र से भगवान्‌ विष्णु सहित अनन्त सूत्र का षोडशोपचार पूर्वक गंध,अक्षत,धूप दीप,नैवेद्ध  आदि  से पूजन करे ।  "पुरुष सुक्त" व "विष्णु सहस्त्रनाम" का पाठ भी लाभकारी सिद्ध होता है | इसके बाद उस पूजित अनन्त सूत्र को यह मन्त्र पढकर पुरुष दाहिने और स्त्री बायें हाथ में बाँध ले | यह  डोरा  अनन्त  फल  देने  वाला   और  भगवान  विष्णु  को  प्रसन्न   करने  वाला  होता  है।

अनन्त संसार महासमुद्रे मग्नान्‌ समभ्युद्धर वासुदेव ।
अनन्तरुपे विनियोजितात्मा ह्यनन्तरुपाय नमो नमस्ते ॥

अनन्तसूत्र बाँधने के बाद ब्राह्मण को नैवेध (भोग) तथा ब्रह्मण भोज करा कर स्वयं प्रसाद ग्रहण करना चाहिये और भगवान्‌ नारायण का ध्यान करते रहना चाहिये। पूजा के अनन्तर परिवारजनों के साथ इस व्रत की कथा सुननी चाहिये।

कथा का सार- 
 सत्ययुग में सुमन्तु नाम के एक मुनि थे। उनकी पुत्री शीला अपने नाम के अनुरूप अत्यंत सुशील थी। सुमन्तु मुनि ने उस कन्या का विवाह कौण्डिन्य मुनि से किया। कौण्डिन्य मुनि अपनी पत्नी शीला को लेकर जब ससुराल से घर वापस लौट रहे थे, तब रास्ते में नदी के किनारे कुछ स्त्रियां अनन्त भगवान की पूजा करते दिखाई पडीं। शीला ने अनन्त-व्रत का माहात्म्य जानकर उन स्त्रियों के साथ अनंत भगवान का पूजन करके अनन्त सूत्र बांध लिया। इसके फलस्वरूप थोडे ही दिनों में उसका घर धन-धान्य से पूर्ण हो गया।एक दिन कौण्डिन्य मुनि की दृष्टि अपनी पत्नी के बाएं हाथ में बंधे अनन्त सूत्र पर पडी, जिसे देखकर वह भ्रमित हो गए और उन्होंने पूछा-क्या तुमने मुझे वश में करने के लिए यह सूत्र बांधा है? शीला ने विनम्रता पूर्वक उत्तर दिया-जी नहीं, यह अनंत भगवान का पवित्र सूत्र है। परंतु ऐश्वर्य के मद में अंधे हो चुके कौण्डिन्य ने अपनी पत्नी की सही बात को भी गलत समझा और अनन्तसूत्र को जादू-मंतर वाला वशीकरण करने का डोरा समझकर तोड दिया तथा उसे आग में डालकर जला दिया। इस जघन्य कर्म व अपराध  का परिणाम भी शीघ्र ही सामने आ गया। उनकी सारी संपत्ति नष्ट हो गई। दीन-हीन स्थिति में जीवन-यापन करने में विवश हो जाने पर कौण्डिन्य ऋषि ने अपने अपराध का प्रायश्चित करने का निर्णय लिया। वे अनन्त भगवान से क्षमा मांगने हेतु वन में चले गए। उन्हें रास्ते में जो मिलता वे उससे अनन्तदेव का पता पूछते जाते थे। बहुत खोजने पर भी कौण्डिन्य मुनि को जब अनन्त भगवान का साक्षात्कार नहीं हुआ, तब वे निराश होकर प्राण त्यागने को उद्यत हुए। तभी एक वृद्ध ब्राह्मण ने आकर उन्हें आत्महत्या करने से रोक दिया और एक गुफा में ले जाकर चतुर्भुज अनन्त देव का दर्शन कराया।भगवान ने मुनि से कहा-तुमने जो अनन्त सूत्र का तिरस्कार किया है, यह सब उसी का फल है। इसके प्रायश्चित हेतु तुम चौदह वर्ष तक निरंतर अनन्त-व्रत का पालन करो। इस व्रत का अनुष्ठान पूरा हो जाने पर तुम्हारी नष्ट हुई सम्पत्ति तुम्हें पुन:प्राप्त हो जाएगी और तुम पूर्ववत् सुखी-समृद्ध हो जाओगे। कौण्डिन्य मुनि ने इस आज्ञा को सहर्ष स्वीकार कर लिया। भगवान ने आगे कहा-जीव अपने पूर्ववत् दुष्कर्मो का फल ही दुर्गति के रूप में भोगता है। मनुष्य जन्म-जन्मांतर के पातकों के कारण अनेक कष्ट पाता है। अनन्त-व्रत के सविधि पालन से पाप नष्ट होते हैं तथा सुख-शांति प्राप्त होती है। कौण्डिन्य मुनि ने चौदह वर्ष तक अनन्त-व्रत का नियमपूर्वक पालन करके खोई हुई समृद्धि को पुन:प्राप्त कर लिया।

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