Wednesday, September 29, 2010

धन, यश, बल व अनंत फलदायक अनंत चतुर्दशी व्रत......!!

अनन्त चतुर्दशी बुधवार, 22 सितम्बर २०१० पर विशेष 

भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की चतुर्दशी को अनन्त चतुर्दशी कहा जाता है। धन,यश व बल की कामना को लेकर मनाया जाने वाला अनंत चतुर्दशी का पर्व भगवान अनन्त को सादर समर्पित है जो भगवान विष्णु का स्वरुप मने जाते है | इस दिन अनन्त भगवान की पूजा करके संकटों से रक्षा करने वाला अनन्त सूत्र बांधा जाता है। अनन्त चतुर्दशी के दिन अनन्त भगवान्‌ की पूजा की जाती है और अलोना (नमक रहित) व्रत रखा जाता है। इसमें उदयव्यापिनी तिथी ली जाती है, पूर्णिमा का समायोग होने से इसका फल और बढ जाता है ।यदि माध्यह्यान तक चतुर्दशी रहे तो और भी अच्छा है। भगवान की साक्षात् या कुशा से बनाई हुई सात कणों वाली शेष स्वरुप अनन्त की मूर्ति स्थापित करें।कहा जाता है कि जब पाण्डव जुए में अपना सारा राज-पाट हार कर वन में कष्ट भोग रहे थे, तब भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें अनन्त चतुर्दशी का व्रत करने की सलाह दी थी। धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने भाइयों तथा द्रौपदी के साथ पूरे विधि-विधान से यह व्रत किया तथा अनन्त सूत्र धारण किया। अनन्त चतुर्दशी-व्रत के प्रभाव से पाण्डव सब संकटों से मुक्त हो गए।

व्रत एवं पुजा विधान मंत्र :
 स्नान के बाद व्रतके लिये यह संकल्प करे -

‘ममाखिलपापक्षयपूर्वकशुभफलवृद्धये श्रीमदनन्तप्रीतिकामनया अनन्तव्रतमहं करिष्ये।’

 शास्त्रों में यद्यपि व्रत का संकल्प एवं पूजन किसी पवित्र नदी या सरोवर के तट पर करने का विधान है | तथापि ऐसा संभव न हो तो निवास व पूजा स्थान को स्वच्छ और सुशोभित करे ।वहाँ कलश स्थापित कर उसकी पूजा करे । तत्पश्चात्‌ कलश पर शेषशायी भगवान्‌ विष्णु की मुर्ति रखे और मुर्ति के सम्मुख चौदह ग्रन्थि युक्त अनन्त सूत्र (कच्चे सूत का डोरा) रखे। इसके बाद ‘ॐ अनन्ताय नमः’ इस नाम मन्त्र से भगवान्‌ विष्णु सहित अनन्त सूत्र का षोडशोपचार पूर्वक गंध,अक्षत,धूप दीप,नैवेद्ध  आदि  से पूजन करे ।  "पुरुष सुक्त" व "विष्णु सहस्त्रनाम" का पाठ भी लाभकारी सिद्ध होता है | इसके बाद उस पूजित अनन्त सूत्र को यह मन्त्र पढकर पुरुष दाहिने और स्त्री बायें हाथ में बाँध ले | यह  डोरा  अनन्त  फल  देने  वाला   और  भगवान  विष्णु  को  प्रसन्न   करने  वाला  होता  है।

अनन्त संसार महासमुद्रे मग्नान्‌ समभ्युद्धर वासुदेव ।
अनन्तरुपे विनियोजितात्मा ह्यनन्तरुपाय नमो नमस्ते ॥

अनन्तसूत्र बाँधने के बाद ब्राह्मण को नैवेध (भोग) तथा ब्रह्मण भोज करा कर स्वयं प्रसाद ग्रहण करना चाहिये और भगवान्‌ नारायण का ध्यान करते रहना चाहिये। पूजा के अनन्तर परिवारजनों के साथ इस व्रत की कथा सुननी चाहिये।

कथा का सार- 
 सत्ययुग में सुमन्तु नाम के एक मुनि थे। उनकी पुत्री शीला अपने नाम के अनुरूप अत्यंत सुशील थी। सुमन्तु मुनि ने उस कन्या का विवाह कौण्डिन्य मुनि से किया। कौण्डिन्य मुनि अपनी पत्नी शीला को लेकर जब ससुराल से घर वापस लौट रहे थे, तब रास्ते में नदी के किनारे कुछ स्त्रियां अनन्त भगवान की पूजा करते दिखाई पडीं। शीला ने अनन्त-व्रत का माहात्म्य जानकर उन स्त्रियों के साथ अनंत भगवान का पूजन करके अनन्त सूत्र बांध लिया। इसके फलस्वरूप थोडे ही दिनों में उसका घर धन-धान्य से पूर्ण हो गया।एक दिन कौण्डिन्य मुनि की दृष्टि अपनी पत्नी के बाएं हाथ में बंधे अनन्त सूत्र पर पडी, जिसे देखकर वह भ्रमित हो गए और उन्होंने पूछा-क्या तुमने मुझे वश में करने के लिए यह सूत्र बांधा है? शीला ने विनम्रता पूर्वक उत्तर दिया-जी नहीं, यह अनंत भगवान का पवित्र सूत्र है। परंतु ऐश्वर्य के मद में अंधे हो चुके कौण्डिन्य ने अपनी पत्नी की सही बात को भी गलत समझा और अनन्तसूत्र को जादू-मंतर वाला वशीकरण करने का डोरा समझकर तोड दिया तथा उसे आग में डालकर जला दिया। इस जघन्य कर्म व अपराध  का परिणाम भी शीघ्र ही सामने आ गया। उनकी सारी संपत्ति नष्ट हो गई। दीन-हीन स्थिति में जीवन-यापन करने में विवश हो जाने पर कौण्डिन्य ऋषि ने अपने अपराध का प्रायश्चित करने का निर्णय लिया। वे अनन्त भगवान से क्षमा मांगने हेतु वन में चले गए। उन्हें रास्ते में जो मिलता वे उससे अनन्तदेव का पता पूछते जाते थे। बहुत खोजने पर भी कौण्डिन्य मुनि को जब अनन्त भगवान का साक्षात्कार नहीं हुआ, तब वे निराश होकर प्राण त्यागने को उद्यत हुए। तभी एक वृद्ध ब्राह्मण ने आकर उन्हें आत्महत्या करने से रोक दिया और एक गुफा में ले जाकर चतुर्भुज अनन्त देव का दर्शन कराया।भगवान ने मुनि से कहा-तुमने जो अनन्त सूत्र का तिरस्कार किया है, यह सब उसी का फल है। इसके प्रायश्चित हेतु तुम चौदह वर्ष तक निरंतर अनन्त-व्रत का पालन करो। इस व्रत का अनुष्ठान पूरा हो जाने पर तुम्हारी नष्ट हुई सम्पत्ति तुम्हें पुन:प्राप्त हो जाएगी और तुम पूर्ववत् सुखी-समृद्ध हो जाओगे। कौण्डिन्य मुनि ने इस आज्ञा को सहर्ष स्वीकार कर लिया। भगवान ने आगे कहा-जीव अपने पूर्ववत् दुष्कर्मो का फल ही दुर्गति के रूप में भोगता है। मनुष्य जन्म-जन्मांतर के पातकों के कारण अनेक कष्ट पाता है। अनन्त-व्रत के सविधि पालन से पाप नष्ट होते हैं तथा सुख-शांति प्राप्त होती है। कौण्डिन्य मुनि ने चौदह वर्ष तक अनन्त-व्रत का नियमपूर्वक पालन करके खोई हुई समृद्धि को पुन:प्राप्त कर लिया।

धन, यश, बल व अनंत फलदायक अनंत चतुर्दशी व्रत......!!

अनन्त चतुर्दशी बुधवार, 22 सितम्बर २०१० पर विशेष 

भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की चतुर्दशी को अनन्त चतुर्दशी कहा जाता है। धन,यश व बल की कामना को लेकर मनाया जाने वाला अनंत चतुर्दशी का पर्व भगवान अनन्त को सादर समर्पित है जो भगवान विष्णु का स्वरुप मने जाते है | इस दिन अनन्त भगवान की पूजा करके संकटों से रक्षा करने वाला अनन्त सूत्र बांधा जाता है। अनन्त चतुर्दशी के दिन अनन्त भगवान्‌ की पूजा की जाती है और अलोना (नमक रहित) व्रत रखा जाता है। इसमें उदयव्यापिनी तिथी ली जाती है, पूर्णिमा का समायोग होने से इसका फल और बढ जाता है ।यदि माध्यह्यान तक चतुर्दशी रहे तो और भी अच्छा है। भगवान की साक्षात् या कुशा से बनाई हुई सात कणों वाली शेष स्वरुप अनन्त की मूर्ति स्थापित करें।कहा जाता है कि जब पाण्डव जुए में अपना सारा राज-पाट हार कर वन में कष्ट भोग रहे थे, तब भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें अनन्त चतुर्दशी का व्रत करने की सलाह दी थी। धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने भाइयों तथा द्रौपदी के साथ पूरे विधि-विधान से यह व्रत किया तथा अनन्त सूत्र धारण किया। अनन्त चतुर्दशी-व्रत के प्रभाव से पाण्डव सब संकटों से मुक्त हो गए।

व्रत एवं पुजा विधान मंत्र :
 स्नान के बाद व्रतके लिये यह संकल्प करे -

‘ममाखिलपापक्षयपूर्वकशुभफलवृद्धये श्रीमदनन्तप्रीतिकामनया अनन्तव्रतमहं करिष्ये।’

 शास्त्रों में यद्यपि व्रत का संकल्प एवं पूजन किसी पवित्र नदी या सरोवर के तट पर करने का विधान है | तथापि ऐसा संभव न हो तो निवास व पूजा स्थान को स्वच्छ और सुशोभित करे ।वहाँ कलश स्थापित कर उसकी पूजा करे । तत्पश्चात्‌ कलश पर शेषशायी भगवान्‌ विष्णु की मुर्ति रखे और मुर्ति के सम्मुख चौदह ग्रन्थि युक्त अनन्त सूत्र (कच्चे सूत का डोरा) रखे। इसके बाद ‘ॐ अनन्ताय नमः’ इस नाम मन्त्र से भगवान्‌ विष्णु सहित अनन्त सूत्र का षोडशोपचार पूर्वक गंध,अक्षत,धूप दीप,नैवेद्ध  आदि  से पूजन करे ।  "पुरुष सुक्त" व "विष्णु सहस्त्रनाम" का पाठ भी लाभकारी सिद्ध होता है | इसके बाद उस पूजित अनन्त सूत्र को यह मन्त्र पढकर पुरुष दाहिने और स्त्री बायें हाथ में बाँध ले | यह  डोरा  अनन्त  फल  देने  वाला   और  भगवान  विष्णु  को  प्रसन्न   करने  वाला  होता  है।

अनन्त संसार महासमुद्रे मग्नान्‌ समभ्युद्धर वासुदेव ।
अनन्तरुपे विनियोजितात्मा ह्यनन्तरुपाय नमो नमस्ते ॥

अनन्तसूत्र बाँधने के बाद ब्राह्मण को नैवेध (भोग) तथा ब्रह्मण भोज करा कर स्वयं प्रसाद ग्रहण करना चाहिये और भगवान्‌ नारायण का ध्यान करते रहना चाहिये। पूजा के अनन्तर परिवारजनों के साथ इस व्रत की कथा सुननी चाहिये।

कथा का सार- 
 सत्ययुग में सुमन्तु नाम के एक मुनि थे। उनकी पुत्री शीला अपने नाम के अनुरूप अत्यंत सुशील थी। सुमन्तु मुनि ने उस कन्या का विवाह कौण्डिन्य मुनि से किया। कौण्डिन्य मुनि अपनी पत्नी शीला को लेकर जब ससुराल से घर वापस लौट रहे थे, तब रास्ते में नदी के किनारे कुछ स्त्रियां अनन्त भगवान की पूजा करते दिखाई पडीं। शीला ने अनन्त-व्रत का माहात्म्य जानकर उन स्त्रियों के साथ अनंत भगवान का पूजन करके अनन्त सूत्र बांध लिया। इसके फलस्वरूप थोडे ही दिनों में उसका घर धन-धान्य से पूर्ण हो गया।एक दिन कौण्डिन्य मुनि की दृष्टि अपनी पत्नी के बाएं हाथ में बंधे अनन्त सूत्र पर पडी, जिसे देखकर वह भ्रमित हो गए और उन्होंने पूछा-क्या तुमने मुझे वश में करने के लिए यह सूत्र बांधा है? शीला ने विनम्रता पूर्वक उत्तर दिया-जी नहीं, यह अनंत भगवान का पवित्र सूत्र है। परंतु ऐश्वर्य के मद में अंधे हो चुके कौण्डिन्य ने अपनी पत्नी की सही बात को भी गलत समझा और अनन्तसूत्र को जादू-मंतर वाला वशीकरण करने का डोरा समझकर तोड दिया तथा उसे आग में डालकर जला दिया। इस जघन्य कर्म व अपराध  का परिणाम भी शीघ्र ही सामने आ गया। उनकी सारी संपत्ति नष्ट हो गई। दीन-हीन स्थिति में जीवन-यापन करने में विवश हो जाने पर कौण्डिन्य ऋषि ने अपने अपराध का प्रायश्चित करने का निर्णय लिया। वे अनन्त भगवान से क्षमा मांगने हेतु वन में चले गए। उन्हें रास्ते में जो मिलता वे उससे अनन्तदेव का पता पूछते जाते थे। बहुत खोजने पर भी कौण्डिन्य मुनि को जब अनन्त भगवान का साक्षात्कार नहीं हुआ, तब वे निराश होकर प्राण त्यागने को उद्यत हुए। तभी एक वृद्ध ब्राह्मण ने आकर उन्हें आत्महत्या करने से रोक दिया और एक गुफा में ले जाकर चतुर्भुज अनन्त देव का दर्शन कराया।भगवान ने मुनि से कहा-तुमने जो अनन्त सूत्र का तिरस्कार किया है, यह सब उसी का फल है। इसके प्रायश्चित हेतु तुम चौदह वर्ष तक निरंतर अनन्त-व्रत का पालन करो। इस व्रत का अनुष्ठान पूरा हो जाने पर तुम्हारी नष्ट हुई सम्पत्ति तुम्हें पुन:प्राप्त हो जाएगी और तुम पूर्ववत् सुखी-समृद्ध हो जाओगे। कौण्डिन्य मुनि ने इस आज्ञा को सहर्ष स्वीकार कर लिया। भगवान ने आगे कहा-जीव अपने पूर्ववत् दुष्कर्मो का फल ही दुर्गति के रूप में भोगता है। मनुष्य जन्म-जन्मांतर के पातकों के कारण अनेक कष्ट पाता है। अनन्त-व्रत के सविधि पालन से पाप नष्ट होते हैं तथा सुख-शांति प्राप्त होती है। कौण्डिन्य मुनि ने चौदह वर्ष तक अनन्त-व्रत का नियमपूर्वक पालन करके खोई हुई समृद्धि को पुन:प्राप्त कर लिया।

Understanding "Shiva" n The Importance Of " Shiva Ratri "

तुम भटक गए हो मनमाने नियमों, भिन्न मतों के भ्रम के जाल और खुद के मानसिक द्वंद्व में, क्योंकि तुम्हें भटकाया गया है। शिव को छोड़कर तुम्हारा दिमाग कहीं ओर लगाया गया है तभी तो तुम्हें रास्ता समझ में नहीं आता। किसने लगाया तुम्हारा दिमाग कहीं ओर? तुम खुद हो इसके जिम्मेदार।

हिंदुओं के मात्र दो संप्रदाय हैं। पहला शैव और दूसरा वैष्णव। अन्य सारे संप्रदाय उक्त दो संप्रदायों के अंतर्गत ही माने जाते हैं। हालाँकि वैदिक दर्शक के कारण अनेकों अन्य संप्रदाय का जिक्र भी किया जा सकता है। यहाँ शैव संप्रदाय को सबसे प्राचीन संप्रदाय माना जाता है।

नाथपंथी, शाक्तपंथी या आदि गुरु शंकराचार्य के दशनामी संप्रदाय सभी शैव संप्रदाय के अंतर्गत ही माने जाते हैं। भारत में शैव संप्रदाय की सैकड़ों शाखाएँ हैं। यह विशाल वटवृक्ष की तरह संपूर्ण भारत में फैला हुआ है। कुंभ के मेले में इसकी विभिन्नता के दर्शन होते हैं, किंतु सभी एक मामले में एकमत है वह यह कि शिव ही परम सत्य और तत्व है।

ऐसा माना जाता है कि शैव पंथ में रात्रियों का महत्व अधिक है तो वैष्णव पंथ दिन के क्रिया-कर्म को ही शास्त्र सम्मत मानता है। शैव 'चंद्र' पर तो वैष्णव 'सूर्य' पर आधारित पंथ है। वर्षभर में बहुत सारी रात्रियाँ होती हैं उनमें से कुछ चुनिंदा रात्रियों का ही महत्व है। उन चुनिंदा रात्रियों में भी महाशिवरात्रि का महत्व और भी ज्यादा है।

इस महाशिवरात्रि से जुड़ी अनेकों मान्यता है। माना जाता है कि प्रलय काल और सृष्टि रचना काल के बीच जो महारात्रि थी उसे ही शिवरात्रि कहा जाता है। यह भी माना जाता है कि इसी रात्रि में भगवान शंकर का रुद्र के रूप में अवतार हुआ था। महाशिवरात्रि की रात्रि से संबंधित कई पौराणिक कथाएँ प्रचलित हैं।

महाशिवरात्रि का संदेश : उपवास का आमतौर पर अर्थ होता है ऊपर वाले का मन में वास। उपवास का अर्थ भूखा रहना या निराहार नहीं होता। शिव की भक्ति करना ही उपवास है तो इस दिन पवित्र रहकर भगवान शंकर को अपने मन में बसाएँ रखने का महत्व है। मान्यता है कि इस दिन भगवान शंकर जल्दी ही प्रसन्न हो सकते हैं।

कुछ लोग इस रात्रि को जागरण करते हैं, लेकिन कुछ संतों का मानना है कि जागरण का सही अर्थ है पाँचों इंद्रियों द्वारा आत्मा पर जो बेहोशी या विकार छा गया है उसके प्रति जाग्रत हो जाना ही जागरण है। यंत्रवत जीने को छोड़कर अर्थात तंद्रा को तोड़कर चेतना को शिव के एक तंत्र में लाना ही महाशिवरात्रि का संदेश है।

शिव तुम्हें बुलाते हैं : आकाश में शिव की अखंड ज्योत जल रही है। सारे साधु-संत और ज्ञानीजन उस अवधूत की ही शरण में रहकर सुखी और निरोगी है। उस परम योगी का ध्यान छोड़कर जो व्यक्ति कहीं ओर चला जाता है तो वह योगी जीवन के हर मोर्चे पर उस व्यक्ति का साथ देने के लिए उसे पुकारता है, लेकिन उसने अपने कान बंद कर रखें हैं इसीलिए दुख बार-बार उसका ही दरवाजा खटखटाता है।

रात का अंधेरा उसे डरावना लगता है। अंधेरा शाश्वत होता है इस अंधेरे को शिव भक्त ही चीर सकता है, इसलिए कहते हैं-

"अकाल मृत्यु वह मरे, जो कर्म करें चांडाल का, काल उसका क्या करे जो भक्त है महाकाल का"

Significance of Shivaratri in Hinduism -

Festival of Mahashivaratri has tremendous significance in Hinduism. According to sacred scriptures, ritual worship of Lord Shiva on Shivratri festival that falls on the 14th day of the dark fortnight in the month of Phalgun pleases Lord Shiva the most. This fact is said to have been declared by Lord Shiva himself, when his consort Parvati asked him as to which ritual performed by his devotees pleases him the most.

They observe day and night fast and perform Rudrabhishek to Shiva Linga with honey, milk, water etc. Hindus consider it extremely auspicious to worship Lord Shiva on a Shivaratri as it is believed that worship of Lord Shiva with devotion and sincerity absolves a devotee of past sins. The devotee reaches the abode of Lord Shanker and lives there happily. He is also liberated from the cycle of birth and death and attains moksha or salvation.

The significance of Shivaratri is closely associated with ‘amavasya.’ Amavasya represents Kaliyuga. Lord Shiva appeared just before the beginning of Kaliyuga to rid the world of evil and ignorance, which is symbolically represented through Amavasya. Therefore Mahashivratri is celebrated to get rid of evil and ignorance.

When Brahma and Vishnu fought between themselves as "who is the greatest", Lord Shiva appeared before them as a pillar of fire. They were not able to find the starting and end of that pillar.It is a lingam in the form of fire which has neither a beginning nor an end.

Devotees pray the God throughout the night of Shiva rathri by performing Abisheka, chanting and other holy deeds.

Every month in Krishna paksha chathurdhasi (fourteenth moonday) is called masa Shiva rathri. The one that comes in the month of "Masi" (mid February to mid March) is called Maha Shiva rathri. This is considered as the most important vrata by the devotees.

On the Shivratri day.

Apart from this there are numerous legends and myths associated with Shivratri. An important myth is that Shivaratri is the birthday of Lord Shiva – this is mainly because the formless Lord Shiva appeared for the first time in the form of ‘Lingodabhavamurti’ before Lord Vishnu and Brahma.

Other important myths include that of Taandava, the consummation of poison during the churning of ocean, hunter accidentally dropping the leaves of bilva, the loss of importance of ketki flower, which is now only offered during shivaratri.

Shivaratri falls not just once a year, but once every month. Then why is this Mahashivaratri so important? Night is dominated by the moon. The moon has 16 kalas [fractions of divine glory], and each night, during the dark fortnight, one fraction is reduced, until the entire moon is annihilated on new moon night. From then on, each night, a fraction is added, until the moon is full circle on Full Moon Night. The Chandra (moon) is the presiding deity of the mind and hence the mind waxes and wanes like the moon. Chandramaa-manaso jaathah—out of the manas of the Purusha [Supreme Being], the moon was born.

Once when everything in all the worlds got reduced into Lord shiva, in that darkness of nothing present, the mother Parvati worshipped Lord shiva in the Agamic way with great devotion. The parameshwar pleased by Her prayer blessed Her. She asked for the benefit of all the creatures that in future whoever worships the Lord on the Shiva Ratri day with devotion, they should be blessed and should be given the ultimate liberation. The pashupati granted that showing way for all of us to get blessed easily.

Significance of Shivaratri for Women-

Mahashivratri Festival is also considered to be an extremely significant festival by women. Married and unmarried women observe fast and perform Shiva Puja with sincerity to appease Goddess Parvati who is also regarded as ‘Gaura’ - one who bestows marital bliss and long and prosperous married life. Unmarried women also pray for a husband like Lord Shiva who is regarded as the ideal husband.

Lord Siva represents the destructive aspect of Brahman. That portion of Brahman that is enveloped by Tamo-Guna-Pradhana-Maya is Lord Siva who is the all-pervading Isvara and who also dwells in Mount Kailas. He is the Bhandar or storehouse of Wisdom. Siva minus Parvati, Kali or Durga is pure Nirguna Brahman. With Maya (Parvati) He becomes the Saguna Brahman for the purpose of pious devotion of His devotees. Devotees of Rama must worship Lord Siva also. Rama Himself worshipped Lord Siva at the famous Ramesvaram. Lord Siva is the Lord of Ascetics and Lord of Yogins robed in space (Digambara).

His Trisul (trident) that is held in His right hand represents the three Gunas—Sattva, Rajas and Tamas. That is the emblem of sovereignty. He rules the world through these three Gunas. The Damaru in His left hand represents the Sabda Brahman, It represents OM from which all languages are formed. It is He who formed the Sanskrit language out of the Damaru sound.

The wearing of the crescent moon on His head indicates that He has controlled the mind perfectly. The flow of the Ganga represents the nectar of immortality. Elephant represents symbolically the Vritti, pride. Wearing the skin of the elephant denotes that He has controlled pride. Tiger represents lust. His sitting on the tiger’s skin indicates that He has conquered lust. His holding deer on one hand indicates that He has removed the Chanchalata (tossing) of the mind. Deer jumps from one place to another swiftly. The mind also jumps from one object to another. His wearing of serpents around the neck denotes wisdom and eternity. Serpents live for a large number of years. He is Trilochana, the three-eyed One, in the centre of whose forehead is the third eye, the eye of wisdom. Nandi, the bull that sits in front of Sivalinga, represents Pranava (Omkara). The Linga represents Advaita. It points out “I am one without a second—Ekameva Advitiyam.” Just as a man raises his right hand above his head, pointing out his right index-finger only.

O friends! Take refuge in the Name of Siva. Sing His hymns. Nami and Name are inseparable. Sing Lord Siva’s hymns incessantly. Remember the Name of the Lord with every incoming and outgoing breath. In this Iron Age, Nama-Smarana or singing the hymns is the easiest, quickest, safest and surest way to reach God and attain Immortality and perennial joy. Glory to Lord Siva! Glory to His Name!!

Ravana propitiated Lord Siva by his hymns. Pushpadanta pleased Lord Siva by his celebrated Stotra—Siva Mahimna Stotra, which is even now sung by all devotees of Siva throughout India, and obtained all Aisvarya or Siddhis and Mukti. The glory of the Stotras of Siva is indescribable. You must all sing the hymns of Lord Siva and obtain His grace and salvation, not in the unknown future, but right now in this very second. You can please Lord Siva easily. Fast on the Sivaratri day. If you cannot do this, take milk and fruits. Keep perfect vigil the whole night and sing His Stotras, and repeat ‘Om Namah Sivaya’. May the blessings of Lord Siva be upon you all!

Har Har Mahadev....Jay MahaKaal....!!!

|| श्री कृष्ण शरणं मम || "जीवन सार्थक करने का पावन पर्व श्री कृष्ण जन्माष्टमी "

हरे कृष्ण ! हरे कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! हरे हरे ! हरे राम ! हरे राम ! राम ! राम ! हरे हरे !

जब भी असुरों के अत्याचार बढ़े हैं और धर्म का पतन हुआ है तब-तब भगवान ने पृथ्वी पर अवतार लेकर सत्य और धर्म की स्थापना की है। इसी कड़ी में

भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मध्यरात्रि केअवजित मुहूर्त में अत्याचारी कंस का विनाश करने के लिए मथुरा में भगवान कृष्ण ने अवतार लिया

। एक ऐसा अवतार जिसके दर्शन मात्र से प्राणियो के, घट घट के संताप, दुःख, पाप मिट जाते है | जिन्होंने इस श्रृष्टि को गीता का उपदेश दे कर उसका कल्याण किया, जिसने अर्जुन को कर्म का सिद्धांत पढाया, यह उनका जन्मोत्सव है |

हमारे वेदों में चार रात्रियों का विशेष महातव्य बताया गया है दीपावली जिसे कालरात्रि कहते है,शिवरात्रि महारात्रि है,श्री कृष्ण जन्माष्टमी मोहरात्रि और होली अहोरात्रि है| जिनके जन्म के सैंयोग मात्र से बंदी गृह के सभी बंधन स्वत: ही खुल गए, सभी पहरेदार घोर निद्रा में चले गए, माँ यमुना जिनके चरण स्पर्श करने को आतुर हो उठी, उस भगवान श्री कृष्ण को सम्पूर्ण श्रृष्टि को मोह लेने वाला अवतार माना गया है | इसी कारण वश जन्माष्टमी की रात्रि को मोहरात्रि कहा गया है। | इस रात में योगेश्वर श्रीकृष्ण का ध्यान, नाम अथवा मंत्र जपते हुए जगने से संसार की मोह-माया से आसक्ति हटती है। जन्माष्टमी का व्रत "व्रतराज" कहा गया है। इसके सविधि पालन से प्राणी अनेक व्रतों से प्राप्त होने वाली महान पुण्य राशि प्राप्त कर सकते है |

योगेश्वर कृष्ण के भगवद गीता के उपदेश अनादि काल से जनमानस के लिए जीवन दर्शन प्रस्तुत करते रहे हैं। जन्माष्टमी भारत में हीं नहीं बल्कि विदेशों में बसे भारतीय भी पूरी आस्था व उल्लास से मनाते हैं। ब्रजमंडल में श्री कृष्णाष्टमी "नंद-महोत्सव" अर्थात् "दधिकांदौ श्रीकृष्ण" के जन्म उत्सव का दृश्य बड़ा ही दुर्लभ होता है | भगवान के श्रीविग्रह पर हल्दी, दही, घी, तेल, गुलाबजल, मक्खन, केसर, कपूर आदि चढा ब्रजवासी उसका परस्पर लेपन और छिडकाव करते हैं तथा छप्पन भोग का महाभोग लगते है। वाद्ययंत्रों से मंगल ध्वनि बजाई जाती है। जगद्गुरु श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव नि:संदेह सम्पूर्ण विश्व के लिए आनंद-मंगल का संदेश देता है। सम्पूर्ण ब्रजमंडल "नन्द के आनंद भयो - जय कन्हैय्या लाल की" जैसे जयघोषो व बधाइयो से गुंजायमान होता है|

व्रत महात्यम:-

भविष्य पुराण के जन्माष्टमी व्रत-माहात्म्य में यह कहा गया है कि जिस राष्ट्र या प्रदेश में यह व्रतोत्सव किया जाता है, वहां पर प्राकृतिक प्रकोप या महामारी का ताण्डव नहीं होता। मेघ पर्याप्त वर्षा करते हैं तथा फसल खूब होती है। जनता सुख-समृद्धि प्राप्त करती है। इस व्रतराज के अनुष्ठान से सभी को परम श्रेय की प्राप्ति होती है। व्रतकर्ता भगवत्कृपा का भागी बनकर इस लोक में सब सुख भोगता है और अन्त में वैकुंठ जाता है। कृष्णाष्टमी का व्रत करने वाले के सब क्लेश दूर हो जाते हैं।दुख-दरिद्रता से उद्धार होता है। गृहस्थों को पूर्वोक्त द्वादशाक्षर मंत्र से दूसरे दिन प्रात:हवन करके व्रत का पारण करना चाहिए। जिन भी लोगो को संतान न हो, वंश वृद्धि न हो, पितृ दोष से पीड़ित हो, जन्मकुंडली में कई सारे दुर्गुण, दुर्योग हो, शास्त्रों के अनुसार इस व्रत को पूर्ण निष्ठा से करने वाले को एक सुयोग्य,संस्कारी,दिव्य संतान की प्राप्ति होती है, कुंडली के सारे दुर्भाग्य सौभाग्य में बदल जाते है और उनके पितरो को नारायण स्वयं अपने हाथो से जल दे के मुक्तिधाम प्रदान करते है | स्कन्द पुराण के मतानुसार जो भी व्यक्ति जानकर भी कृष्ण जन्माष्टमी व्रत को नहीं करता, वह मनुष्य जंगल में सर्प और व्याघ्र होता है। ब्रह्मपुराण का कथन है कि कलियुग में भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी में अट्ठाइसवें युग में देवकी के पुत्र श्रीकृष्ण उत्पन्न हुए थे। यदि दिन या रात में कलामात्र भी रोहिणी न हो तो विशेषकर चंद्रमा से मिली हुई रात्रि में इस व्रत को करें। भविष्य पुराण का वचन है- श्रावण मास के शुक्ल पक्ष में कृष्ण जन्माष्टमी व्रत को जो मनुष्य नहीं करता, वह क्रूर राक्षस होता है। केवल अष्टमी तिथि में ही उपवास करना कहा गया है। जिन परिवारों में कलह-क्लेश के कारण अशांति का वातावरण हो, वहां घर के लोग जन्माष्टमी का व्रत करने के साथ निम्न किसी भी मंत्र का अधिकाधिक जप करें-

"ॐ नमो नारायनाय "

आथवा

" सिद्धार्थ: सिद्ध संकल्प: सिद्धिद सिद्धि: साधन:"

आथवा

"ॐ नमों भगवते वासुदेवाय"

या

"श्री कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने।प्रणत: क्लेश नाशाय गोविन्दाय नमो नम:"॥

आथवा

"श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी हे नाथ नारायण वासुदेवाय" ||

उपर्युक्त मंत्र में से किसी का भी का जाप करते हुए सच्चिदानंदघन श्रीकृष्ण की आराधना करें। इससे परिवार में व कुटुंब में व्याप्त तनाव, समस्त प्रकार की समस्या, विषाद, विवाद और विघटन दूर होगा खुशियां घर में वापस लौट आएंगी। गौतमी तंत्र में यह निर्देश है- प्रकर्तव्योन भोक्तव्यं कदाचन।कृष्ण जन्मदिने यस्तु भुड्क्ते सतुनराधम:। निवसेन्नर केघोरे यावदाभूत सम्प्लवम्॥अर्थात- अमीर-गरीब सभी लोग यथाशक्ति-यथासंभव उपचारों से योगेश्वर कृष्ण का जन्मोत्सव मनाएं। जब तक उत्सव सम्पन्न न हो जाए तब तक भोजन कदापि न करें। जो वैष्णव कृष्णाष्टमी के दिन भोजन करता है, वह निश्चय ही नराधम है। उसे प्रलय होने तक घोर नरक में रहना पडता है।

अष्टमी दो प्रकार की है- पहली जन्माष्टमी और दूसरी जयंती। इसमें केवल पहली अष्टमी है। यदि वही तिथि रोहिणी नक्षत्र से युक्त हो तो 'जयंती' नाम से संबोधित की जाएगी। वह्निपुराण का वचन है कि कृष्णपक्ष की जन्माष्टमी में यदि एक कला भी रोहिणी नक्षत्र हो तो उसको जयंती नाम से ही संबोधित किया जाएगा। अतः उसमें प्रयत्न से उपवास करना चाहिए। विष्णुरहस्यादि वचन से- कृष्णपक्ष की अष्टमी रोहिणी नक्षत्र से युक्त भाद्रपद मास में हो तो वह जयंती नाम वाली ही कही जाएगी। वसिष्ठ संहिता का मत है- यदि अष्टमी तथा रोहिणी इन दोनों का योग अहोरात्र में असम्पूर्ण भी हो तो मुहूर्त मात्र में भी अहोरात्र के योग में उपवास करना चाहिए। मदन रत्न में स्कन्द पुराण का वचन है कि जो उत्तम पुरुष है वे निश्चित रूप से जन्माष्टमी व्रत को इस लोक में करते हैं। उनके पास सदैव स्थिर लक्ष्मी होती है। इस व्रत के करने के प्रभाव से उनके समस्त कार्य सिद्ध होते हैं। विष्णु धर्म के अनुसार आधी रात के समय रोहिणी में जब कृष्णाष्टमी हो तो उसमें कृष्ण का अर्चन और पूजन करने से तीन जन्मों के पापों का नाश होता है। भृगु ने कहा है- जन्माष्टमी, रोहिणी और शिवरात्रि ये पूर्वविद्धा ही करनी चाहिए तथा तिथि एवं नक्षत्र के अन्त में पारणा करें। इसमें केवल रोहिणी उपवास भी सिद्ध है।

व्रत-पूजन कैसे करेंश्री कृष्ण जन्माष्टमी का व्रत सनातन-धर्मावलंबियों के लिए अनिवार्य माना गया है। साधारणतया इस व्रतके विषय में दो मत हैं । स्मार्त लोग अर्धरात्रि स्पर्श होनेपर या रोहिणी नक्षत्र का योग होने पर सप्तमी सहित अष्टमी में भी उपवास करते हैं , किन्तु वैष्णव लोग सप्तमी का किन्चिन मात्र स्पर्श होनेपर द्वितीय दिवस ही उपवास करते हैं । वैष्णवों में उदयाव्यपिनी अष्टमी एवं रोहिणी नक्षत्र को ही मान्यता एवं प्रधानता दी जाती हैं | उपवास की पूर्व रात्रि को हल्का भोजन करें और ब्रह्मचर्य का पालन करें। उपवास के दिन प्रातःकाल स्नानादि नित्यकर्मों से निवृत्त हो जाएँ। पश्चात सूर्य, सोम, यम, काल, संधि, भूत, पवन, दिक्‌पति, भूमि, आकाश, खेचर, अमर और ब्रह्मादि को नमस्कार कर पूर्व या उत्तर मुख बैठें। इसके बाद जल, फल, कुश, द्रव्य दक्षिणा और गंध लेकर संकल्प करें-

ॐविष्णुíवष्णुíवष्णु:अद्य शर्वरी नाम संवत्सरे सूर्ये दक्षिणायने वर्षतरै भाद्रपद मासे कृष्णपक्षे श्रीकृष्ण जन्माष्टम्यां तिथौ भौम वासरे अमुकनामाहं(अमुक की जगह अपना नाम बोलें) मम चतुर्वर्ग सिद्धि द्वारा श्रीकृष्ण देवप्रीतये जन्माष्टमी व्रताङ्गत्वेन श्रीकृष्ण देवस्य यथामिलितोपचारै:पूजनं करिष्ये।

यदि उक्त मंत्र का प्रयोग व उच्चारण कठिन प्रतीत हो तो निम्न मंत्र का प्रयोग भी कर सकते है

ममखिलपापप्रशमनपूर्वक सर्वाभीष्ट सिद्धयेश्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रतमहं करिष्ये॥

स्तुति:-

कस्तुरी तिलकम ललाटपटले, वक्षस्थले कौस्तुभम । नासाग्रे वरमौक्तिकम करतले, वेणु करे कंकणम । सर्वांगे हरिचन्दनम सुरलितम, कंठे च मुक्तावलि । गोपस्त्री परिवेश्तिथो विजयते, गोपाल चूडामणी ॥यदि संभव हो तो मध्याह्न के समय काले तिलों के जल से स्नान कर देवकीजी के लिए 'सूतिकागृह' नियत करें।

तत्पश्चात भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति या चित्र स्थापित करें। मूर्ति में बालक श्रीकृष्ण को स्तनपान कराती हुई देवकी हों और लक्ष्मी जी उनके चरण स्पर्श किए हों अथवा ऐसे भाव हो। इसके बाद विधि-विधान से पूजन करें। पूजन में देवकी, वसुदेव, बलदेव, नंद, यशोदा और लक्ष्मी इन सबका नाम क्रमशः निर्दिष्ट करना चाहिए। अर्धरात्रि के समय शंख तथा घंटों के निनाद से श्रीकृष्ण जन्मोत्सव सम्पादित करे तदोपरांत श्रीविग्रह का षोडशोपचार विधि से पूजन करे |

निम्न मंत्र से पुष्पांजलि अर्पण करें-'प्रणमे देव जननी त्वया जातस्तु वामनः। वसुदेवात तथा कृष्णो नमस्तुभ्यं नमो नमः। सुपुत्रार्घ्यं प्रदत्तं में गृहाणेमं नमोऽस्तु ते।'

उसके पश्चात सभी परिजनों में प्रसाद वितरण कर सपरिवार अन्न भोजन ग्रहण करे और यदि संभव हो तो रात्रि जागरण करना विशेष लाभ प्रद सिद्ध होता है जो किसी भी जीव की सम्पूर्ण मनोकामना पूर्ति करता है |इसके आलावा कृष्ण जन्म के समय "राम चरित मानस" के"बालकांड" में "रामजन्म प्रसंग" का पाठ आथवा "विष्णु सहस्त्रनाम" , "पुरुष सूक्त" का पाठ भी सर्वस्य सिद्दी व सभी मनोरथ पूर्ण करने वाला है |

आज के दिन "संतान गोपाल मंत्र", के जाप व "हरिवंश पुराण", "गीता" के पाठ का भी बड़ा ही महत्व्य है |यह तिथि तंत्र साधको के लिए भी बहु प्रतीक्षित होती है, इस तिथि में "सम्मोहन" के प्रयोग सबसे ज्यादा सिद्ध किये जाते है | यदि कोई सगा सम्बन्धी रूठ जाये, नाराज़ हो जाये, सम्बन्ध विच्छेद हो जाये,घर से भाग जाये, खो जाये तो इस दिन उन्हें वापिस बुलाने का प्रयोग अथवा बिगड़े संबंधो को मधुर करने का प्रयोग भी खूब किया जाता है |

|| श्री कृष्ण शरणं मम ||

मेरी पीड़ा मेरा मर्म......!!!

हमारा भारतवर्ष युगों युगों से अनगिनत अविष्कारों व अनुसंधानों का केंद्र रहा है | ज्योतिष भी उन्ही में से एक है | इस भारत भूमि में ऐसे विद्वान व यशस्वी ऋषि मुनि हुए है जिन्होंने इस मानव जाती के लिए खुद को तिल तिल जला के ऐसे अनुसन्धान किये जिसका आज कोई सानी नहीं | नक्षत्रो, ग्रहों, सूर्य, पृथ्वी आदि की गति पर आधारित कालगणना का वह आधार जिससे भूत, भविष्य, वर्तमान के गर्भ में केवल झाका ही नहीं जा सकता, बल्कि उनके दुष्प्रभावो को कम भी किया जा सकता है | आज उन सूत्रों पर पूरा विश्व बल्कि पश्चमी देश के वैज्ञानिक प्रमुखता से अनुसन्धान कर रहे है जिन्हें हमारे पुरातन ऋषि मुनियों ने बिना किसी यन्त्र अथवा मशीनों के केवल अपनी साधना द्वारा प्राप्त दिव्य चक्षुओ से खोज निकला | आज सम्पूर्ण विश्व विस्मृत है की ब्रह्मांडीय उर्जा का इतना सटीक आकलन कोई कैसे कर सकता है | हमारे इन पुरातन वैज्ञानिको (ऋषि - मुनियों) ने स्वयं को साधना में इस प्रकार ढाला था की उन्हें कोई सुख भोग की अव्याक्षकता नहीं थी | उन्होंने यह खोज अपनी आने वाली संतानों के जीवन को आसन व् सुखमय बनाने के लिए की थी, जिससे उनके बताये मार्ग पर चल कर हम परम धाम की प्राप्ति कर सके |

परन्तु आज हम उनके बताये हुए मार्ग पर कितना चलते है? जिन्होंने खुद को जला कर हमें हमारे जीवन को प्रकाशवान और सार्थक बनाने के सूत्र दिए, हम आज उन्हें कितना याद करते है? उनके प्रति हमारी क्या कृतज्ञता है ?

अगर हम इन शास्त्रों का और शास्त्रीय विधाओ का सही तरीके से अपने जीवन में उपयोग करे तो हम पुरुषार्थ चतुष्ण्य की प्राप्ति कर सकते है | ज्योतिष, योग और वास्तुशास्त्र यह कुछ ऐसे ही विषय है जिनका अनुसरण हमे दैनिक जीवन में करना चाहिये जिससे जीवन में आने वाली जटिल समस्यों का समाधान स्वत: ही हो जाये या उनका समाधान मिल जाये | आज के युग में ज्योतिष एक पाखंड माना जाता है | खाने कमाने का धंधा मात्र बन कर रह गया | लोगो को डरा धमका कर, उनके भविष्य के बारे में शशंकित कर उन्हें लूटा जाता है | ऐसा सिर्फ इस लिए हुआ के इस देश की धर्मभीरु जनता का विश्वास अपनी सभ्यता, संस्कार, अपने शास्त्रों पर अटूट रहा है और रहेगा | कुछ मुट्ठी भर लोभी व व्यापारी तथाकथित ज्योत्षियो ने इस परम पवित्र इश्वरीय कार्य को मलीन ही नहीं किया बल्कि इसकी गरिमा और भोली मासूम जनता के विश्वास को भी ठेस पहुचाई है | यह कलयुग के चरम पे होने का प्रमाण है | जो धर्म - आध्यात्म को एक बाज़ार और विश्वास को व ज्योतिष को क्रय - विक्रय अथवा मोल की वस्तु समझते है वो ये नहीं जानते इन ऋषि मुनियों का श्राप उनकी आने वाली कई पीढिया नस्ट कर सकता है | इश्वरीय सत्ता व मर्यादा का उलंघन कदापि उचित नहीं | इसके परिणाम गंभीर होंगे | ज्योतिष उतना ही सच है जैसे ये दिन और रात | इसका एक एक सूत्र और सिद्धांत हमारे जीवन को सम्पूर्ण बनाने में सक्षम है | अगर हमे अपने जीवन को सुख समृद्ध करना है तो इनका अनुसरण करना आवयशक होगा |

मेरी उन सभी लोगो से विनती है जो इस दिव्य कार्य में लीं है | आप इस कार्य को जितनी निष्ठा से व् सेवा भाव से करेंगे, आप को उतना ही फलित होगा | आज कल ज्योतिषी बंधू कही रत्न बेचते नज़र आ रहे है तो कही लोगो को दिग्भ्रमित कर यन्त्र या महंगे अनुष्ठान के लिए बाध्य करते व् गलत राय देते | इससे पूरी कौम का नाम बदनाम हो रहा है और हमारे शास्त्र कलंकित हो रहे है | किसी को मुर्ख बना के कुछ पैसे कमा लेना, कोई महानता नहीं है | यह आपको छनिक लाभ और सुख तो दे सकता है लेकिन आप का सर्वस्व्य ले सकता है | जीवन देवदोष से पीडित हो सकता है और उसका कोई उपाय नहीं | तो मित्रो ज्योतिष पुरातन काल से ही लोक सेवा का कार्य रहा है न की धनोपार्जन का आसान माध्यम | अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए कुछ दूसरा व्यापार करना बुरा नहीं है, ज्योतिष को लोक हित के लिए ही रहने दिया जाये तो अच्छा | एक ज्योतिषी होना समाज की कितनी बड़ी ज़िम्मेदारी का कार्य है उसे समझना नितांत अवाय्षक है | जब कोई यजमान आप के पास अपने जीवन की प्रमुख समस्या ले कर आता है या आप की सलाह, सुझाव व मार्गदर्शन पर अपने जीवन के महत्व्यपूर्ण निर्णय निर्धारित करता है तो किसी भी ज्योतिषी को चाहिये की यजमान को पूरी तरह संतुस्ट करे और उसे गलत राय दे कर पाप के भागिदार न बने |

"Amulets"

Before reading about “Amulets” one must understand what exactly it is ? and how it works….?

An Amulet (from Latin amuletum) is something intended to bring good luck and/or protection to its owner. These things can be gems or simple stones, statues, objects, coins, drawings, pendants, ringss, plants, animals, gestures, etc.; even words said in certain occasions --- i.e. vade retro, Satanas --- (Latin, "go back, Satan"), to repel evil or bad luck.

Amulets vary considerably according to the place and epoch. Nevertheless, religious objects are common amulets in different societies, be these the figure of a god or simply some symbol representing the deity (i.e. the cross for Christians, the "eye of Horus" for the ancient Egyptians). Every zodiacal sign has its corresponding gem that acts as an amulet, but these stones vary according to the authors. It is an ancient tradition in China to capture a cricket alive and keep it into an osier box to attract good luck (this tradition extended to the Philippines), and to spread coins on the floor to attract money; rice is also considered a carrier of good fortune. Turtles and cactus are controversial, for meanwhile some people consider them as beneficial, others think they delay everything in the house.

The Amulet is an articles made up of Few Secred n Natural things (i.e.Gems, Metals, Herbs,Threads, Leafs etc)These Amulets should be made or Bieng Charged or Boosted by Spritually Blessed Saints (Spritual Gurus) who has Pure Soul n Without any Personal,Commercial n Physical Interest (who works for Social well Bieng) with some Specific Chants(Mantras) at a time when the Relevant Planet is Pouring out its influence at maximum Intensity Under some Very Rare and Positive Planetry Situations Which is called “Subh Yogas or Muhartas” in Hindu Tradition. As we all know, every planet has Certain rediation which effects every atom on this Planet,These espicial and rare planetry combination rediates some very positive energy which if utlized and combined proberly with Cosmic Energy can change or Effect human lives a great Deal. Eamulet is an object that is worn or carried to Enhance Good Luck & as a charm sometimes. It serves the purpose of either attracting or repelling various good or bad influences.

The “Amulet” not only works Spritually but also works Psychologically on the Subconscious as a constant reminder of what you wish to achieve and strengthens the Power of Positive thinking. The Amulet is an ancient Proven and Highly Effective Alternative to complex or to avoid & Cure Bad Planatery Impacts, Mis Fortune, Evil,Ritual Magic (or Black magic). Amulets subconsciously helps as a Confidence Booster,Mis Fortune, Love, Healing, ESP, Money, Adds Good Luck, White Light Power, Protection Loved Ones and more. With Amulet Power, you can control your destiny and change your life. Since ancient times amulets are still worn for Good fortune and Protection against Evil. The Amulet was also an object of beauty that attracted and absorbed the lethal first glance of the evil eye away from the wearer and psychologically rendered the evil harmless. Modern day Psychologists agree that the subconscious controls every word, deed and action in our conscious lives!

"Yena baddho bali raajaa daanavendro Mahaabalah tena tvam abhibadhnaami rakshe maa Cala Maa Cala" (I tie on you that whereby Bali, the very powerful king of demons, was bound. O protective amulet! Don’t slip off, don’t slip off!

The Puranas describe how Indra, the king of Gods, was able to regain his sovereignty (after a humiliating defeat at the hands of the demons) due to the power of the amulet tied on his hand by his queen after some austerities. This is the origin of the Rakshabandhan festival. The rakshas or rakhis, prepared out of golden or yellow threads, with amulets, are first worshipped and then tied on the right hand. In Hindu tradition,this tying is done by priests uttering the above mantra seeking protection from the amulet as the Blessings and Transfreing the Positive Energy Of the Ritual(Karm kand,anusthan) in the Person,to Protect him n gain the Benefits of Rituals.

From the earliest times, , Our Hindu tradition n Culture has a strong belief and faith in the Cosmic Influence on human lives and events. Our Saints were the best ever Scientists who calculated n seen the Speed,Distance,Positivity/Negativity of the Planets in certain Situation,Cosmic Energies etc. They Practically Experianced & Calculated that there is a natural affinity between certain planets and certain colours, metals, animals. These Saints By the Grace Of God and by their own “ ”Sadhna”n “Tapasya”Earned the Power to Extract or Conevrt the Planet’s Energy.They Wrote these Tested Formules and Guidelines in Form Of “Vedas”,”Upnishads” and so On valuable rare Epics for the Well – bieng for not only the Existing Humans on the Planets but for the Dead once too,to make their Death which is Universal Truth a Worth and convert that into “Moksha”.

पितरों के प्रति कृतज्ञता का पक्ष " पितृपक्ष "

सदियों से भारत भूमि और इसके संस्कार कौतुहल का विषय रहे है | कही पशु पक्षियों के प्रति उदारता तो कही नदियों, वृक्षों, जंगलो की पूजा आराधना व कृतज्ञता की परम्परा | भारतीय संस्कृति का विशाल हृदय इस सृष्टि में व्याप्त एक एक कण के प्रति उतना ही उदार है जितना किसी अपने निकट सम्बन्धी के प्रति | तो जब बात आती है किसी निकट सम्बन्धी की तो हमारा संस्कार,हमारी सभ्यताजीवित ही नहीं अपितु दिवंगत आत्माओ के प्रति भी अपनी उतनी ही ज़िम्मेदारी दर्शाता है | और होना भी चहिये, हमारे संस्कार ने हमे हर प्रकार से मानव धर्म की सेवा और व्यक्ति का सम्मान ही सिखाया है | और जब वह व्यक्ति हमारे बीच न हो तो हमारी उसके प्रति और अधिक ज़िम्मेदारी बन जाती है | हमारे शास्त्रों के आधार पर वह आत्मा "देव तुल्य" बन जाती है और वह हमारे कुल के संगरक्षक और वर्धक होते है जिन्हें हम "पितृदेव" कहते है | भारतीय संस्कृति की पहचान है माता-पिता की पूजा, गुरू-शिष्य परम्परा | हमारी रीतियों में अपने पूर्वजों के स्मरण और उनके प्रति कृतज्ञता का पक्ष है पितृ पक्ष । नई तकनीक से युक्त इस दुनिया में अपने इन्ही पितरों-पूर्वजों के स्मरण को सदा-सदा के लिए न केवल अपने परिवार में सजीव रखने वरन उनके उद्देश्‍यों, कार्यो एवं सदगुणो से सभी को प्रेरणा लेने और उन्हें इस मोह रुपी संसार से मोक्ष की प्राप्ति हो सके। इस प्रकार श्राद्ध कर्म और अपने पितरो का तर्पण और उनके आशीर्वाद प्राप्त करने से उन्नति मिलती है इस लिए न की सिर्फ श्राद्ध पक्ष में बल्कि किसी भी शुभ कार्य की शुरुआत में व विशेष अवसरों पर श्राद्ध कर्म पूरे विधि विधान से संपन्न करना चाहिए| यह परम्परा इसलिए भी आवश्यक है की यह याद दिलाती है की व्यक्ति को उसकी इस लोक के प्रति ज़िम्मेदारी ही नहीं है बल्कि परलोक में जो उसके पृवज है जिनका वह अंश है उसके प्रति भी उसकी कुछ नैतिक ज़िम्मेदारी है जो उसे सम्पूर्ण निष्ठा से पूरी करनी है | आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ऊपर की रश्मि तथा रश्मि के साथ पितृप्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। श्राद्ध की भूलभूत परिभाषा यह है कि प्रेत और पित्त्तर के निमित्त, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक जो अर्पित किया जाए वह श्राद्ध है। मृत्यु के बाद दशगात्र और षोडशी-सपिण्डन तक मृत व्यक्ति की प्रेत संज्ञा रहती है। सपिण्डन के बाद वह पित्तरों में सम्मिलित हो जाता है।पितृपक्ष भर में जो तर्पण किया जाता है उससे वह पितृप्राण स्वयं आप्यापित होता है। पुत्र या उसके नाम से उसका परिवार जो यव तथा चावल का पिण्ड देता है, उसमें से रेतस्‌ का अंश लेकर वह चंद्रलोक में अम्भप्राण का ऋण चुका देता है।ठीक आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से वह चक्र ऊपर की ओर होने लगता है। 15 दिन अपना-अपना भाग लेकर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से उसी रश्मि के साथ रवाना हो जाता है। इसलिए इसको पितृपक्ष कहते हैं और इसी पक्ष में श्राद्ध करने से पित्तरों को प्राप्त होता है।शास्त्रों का निर्देश है कि माता-पिता आदि के निमित्त उनके नाम और गोत्र का उच्चारण कर मंत्रों द्वारा जो अन्न आदि अर्पित किया जाता है, वह उनको प्राप्त हो जाता है। यदि अपने कर्मों के अनुसार उनको देव योनि प्राप्त होती है तो वह अमृत रूप में उनको प्राप्त होता है।उन्हें गन्धर्व लोक प्राप्त होने पर भोग्य रूप में, पशु योनि में तृण रूप में, सर्प योनि में वायु रूप में, यक्ष योनि में पेय रूप में, दानव योनि में मांस के रूप में, प्रेत योनि में रुधिर के रूप में और मनुष्य योनि में अन्न आदि के रूप में उपलब्ध होता है।जब पित्तर यह सुनते हैं कि श्राद्धकाल उपस्थित हो गया है तो वे एक-दूसरे का स्मरण करते हुए मनोनय रूप से श्राद्धस्थल पर उपस्थित हो जाते हैं और ब्राह्मणों के साथ वायु रूप में भोजन करते हैं। ज्योतिष तत्त्व से यह कहा गया है कि जब सूर्य कन्या राशि में आते हैं तब पित्तर अपने पुत्र-पौत्रों के यहाँ आते हैं।विशेषतः आश्विन-अमावस्या के दिन वे दरवाजे पर आकर बैठ जाते हैं। यदि उस दिन उनका श्राद्ध नहीं किया जाता तब वे श्राप देकर लौट जाते हैं। अतः उस दिन पत्र-पुष्प-फल और जल-तर्पण से यथाशक्ति उनको तृप्त करना चाहिए। श्राद्ध विमुख नहीं होना चाहिए।आश्विन मॉस के कृष्ण पक्ष में मूलत: १५ दिन का यह ऐसा विशेष अवसर होता है जब अपने पूर्वजो को याद कर के उनके प्रति अपनी कृतज्ञता स्वरुप तिलांजलि दी जाती है | यह कृतज्ञता कई कारणों से महत्व्यपूर्ण होती है, हमे जन्म देने के प्रति, हमे उत्तम संस्कारो से युक्त करने के निमित्त, हम अभी भी उन्हें याद करते है और उनके प्रति हमारे मनं में अभी भी वही प्रेम, स्नेह, सत्कार, समर्पण, आदर, सम्मानं, का भाव है और हम अभी भी उन्हें अपने बीच में महसूस करते है और उनकी कृपा की कामना करते है | प्रत्येक व्यक्ति माता पिता, गुरू या अभिभावक से प्रेरणा ले कर अपना जीवन संवारता है और इन स्मृतियों को संजोने का कार्य करता है | यह परम्परा हमारी ओर से न केवल श्रध्दांजलि प्रदर्शित करती है बल्कि शायद उनके जीवन के प्रकाश से सभी को प्रकाशवान होने का और उनकी नीतिओ, उनके सद्विचारो का अनुसरण कर अपने जीवन को सफल और सार्थक बनाने और सबको सुमार्ग पर चलने का सन्देश भी देती है | जब बात आती है श्राद्ध कर्म की तो बिहार स्थित गया का नाम बड़ी प्रमुखता व आदर से लिया जाता है | गया समूचे भारत वर्ष में हीं नहीं सम्पूर्ण विश्व में दो स्थानो के लिए बहुत प्रसिद्द है | वह दो स्थान है बोध गया और विष्णुपद मन्दिर | बोधगया जहां भगवान बुद्ध को दिव्यज्ञान की प्राप्ति हुई और विष्णुपद मंदिर वह स्थान जहां माना जाता है की स्वयं भगवान विष्णु के चरण उपस्थित है, जिसकी पूजा करने के लिए लोग देश के कोने-कोने से आते हैं | गया में जो दूसरा सबसे प्रमुख स्थान है जिसके लिए लोग दूर दूर से आते है वह स्थान एक नदी है, उसका नाम "फल्गु नदी" है | ऐसा माना जाता है कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम ने स्वयं इस स्थान पर अपने पिता राजा दशरथ का पिंड दान किया था | तब से यह माना जाने लगा की इस स्थान पर आकर कोई भी व्यक्ति अपने पितरो के निमित्त पिंड दान करेगा तो उसके पितृ उससे तृप्त रहेगे और वह व्यक्ति अपने पितृऋण से उरिण हो जायेगा | इस स्थान का नाम ‘गया’ इसलिए रखा गया क्योंकि भगवान विष्णु ने यहीं के धरती पर असुर गयासुर का वध किया था | तब से इस स्थान का नाम भारत के प्रमुख तीर्थस्थानो मे आता है और बड़ी ही श्रद्धा और आदर से "गया जी" बोला जाता है | पित्र दोष दूर करने के श्राद्ध के ९६ अवसर बताये गए है |मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध प्रमुख बताये गए है |श्राद्ध कब और कौन करे:-माता-पिता की देहावसान तिथि के मध्याह्न काल में पुत्र को श्राद्ध करना चाहिए।जिस स्त्री के कोई पुत्र न हो, वह स्वयं ही अपने पति का श्राद्ध कर सकती है।त्रिविधं श्राद्ध मुच्यते के अनुसार मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध बतलाए गए है, जिन्हें नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य श्राद्धहै। यमस्मृतिमें पांच प्रकार के श्राद्धों का वर्णन मिलता है। जिन्हें नित्य, नैमित्तिक काम्य, वृद्धि और पार्वण के नाम से श्राद्ध है।नित्य श्राद्ध- प्रतिदिन किए जानें वाले श्राद्ध को नित्य श्राद्ध कहते हैं। इस श्राद्ध में विश्वेदेव को स्थापित नहीं किया जाता। यह श्राद्ध में केवल जल से भी इस श्राद्ध को सम्पन्न किया जा सकता है।नैमित्तिक श्राद्ध- किसी को निमित्त बनाकर जो श्राद्ध किया जाता है, उसे नैमित्तिक श्राद्ध कहते हैं। इसे एकोद्दिष्ट के नाम से भी जाना जाता है। एकोद्दिष्ट का मतलब किसी एक को निमित्त मानकर किए जाने वाला श्राद्ध जैसे किसी की मृत्यु हो जाने पर दशाह, एकादशाह आदि एकोद्दिष्ट श्राद्ध के अन्तर्गत आता है। इसमें भी विश्वेदेवोंको स्थापित नहीं किया जाता।काम्य श्राद्ध- किसी कामना की पूर्ति के निमित्त जो श्राद्ध किया जाता है। वह काम्य श्राद्ध के अन्तर्गत आता है।वृद्धि श्राद्ध- किसी प्रकार की वृद्धि में जैसे पुत्र जन्म, वास्तु प्रवेश, विवाहादि प्रत्येक मांगलिक प्रसंग में भी पितरों की प्रसन्नता हेतु जो श्राद्ध होता है उसे वृद्धि श्राद्ध कहते हैं। इसे नान्दीश्राद्ध या नान्दीमुखश्राद्ध के नाम भी जाना जाता है, यह एक प्रकार का कर्म कार्य होता है । दैनंदिनी जीवन में देव-ऋषि-पित्र तर्पण भी किया जाता है।पार्वण श्राद्ध- पार्वण श्राद्ध पर्व से सम्बन्धित होता है। किसी पर्व जैसे पितृपक्ष, अमावास्या या पर्व की तिथि आदि पर किया जाने वाला श्राद्ध पार्वण श्राद्ध कहलाता है। यह श्राद्ध विश्वेदेवसहित होता है।विश्वामित्रस्मृति तथा भविष्यपुराण में बारह प्रकार के श्राद्धों का वर्णन मिलता हैं | जिन्हें नित्य, नैमित्तिक काम्य, वृद्धि, पार्वण, सपिण्डन,गोष्ठी, शुद्धयर्थ,कर्माग,दैविक, यात्रार्थ तथा पुष्ट्यर्थ के नामों से जाना जाता है।सपिण्डनश्राद्ध- सपिण्डनशब्द का अभिप्राय पिण्डों को मिलाना। पितर में ले जाने की प्रक्रिया ही सपिण्डनहै। प्रेत पिण्ड का पितृ पिण्डों में सम्मेलन कराया जाता है। इसे ही सपिण्डनश्राद्ध कहते हैं।गोष्ठी श्राद्ध- गोष्ठी शब्द का अर्थ समूह होता है। जो श्राद्ध सामूहिक रूप से या समूह में सम्पन्न किए जाते हैं। उसे गोष्ठी श्राद्ध कहते हैं।शुद्धयर्थश्राद्ध- शुद्धि के निमित्त जो श्राद्ध किए जाते हैं। उसे शुद्धयर्थश्राद्ध कहते हैं। जैसे शुद्धि हेतु ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए।कर्मागश्राद्ध- कर्मागका सीधा साधा अर्थ कर्म का अंग होता है, अर्थात् किसी प्रधान कर्म के अंग के रूप में जो श्राद्ध सम्पन्न किए जाते हैं। उसे कर्मागश्राद्ध कहते हैं।यात्रार्थश्राद्ध- यात्रा के उद्देश्य से किया जाने वाला श्राद्ध यात्रार्थश्राद्ध कहलाता है। जैसे- तीर्थ में जाने के उद्देश्य से या देशान्तर जाने के उद्देश्य से जिस श्राद्ध को सम्पन्न कराना चाहिए वह यात्रार्थश्राद्ध ही है। इसे घृतश्राद्ध भी कहा जाता है।पुष्ट्यर्थश्राद्ध- पुष्टि के निमित्त जो श्राद्ध सम्पन्न हो, जैसे शारीरिक एवं आर्थिक उन्नति के लिए किया जाना वाला श्राद्ध पुष्ट्यर्थश्राद्ध कहलाता है।धर्मसिन्धु के अनुसार श्राद्ध के ९६ अवसर बतलाए गए हैं। एक वर्ष की अमावास्याएं(12) पुणादितिथियां (4),मन्वादि तिथियां (14) संक्रान्तियां (12) वैधृति योग (12),व्यतिपात योग (12) पितृपक्ष (15), अष्टकाश्राद्ध(5) अन्वष्टका (5) तथा पूर्वेद्यु:(5) कुल मिलाकर श्राद्ध के यह ९६ अवसर प्राप्त होते हैं।पितरों की संतुष्टि हेतु विभिन्न पित्र-कर्म का विधान है। पुराणोक्त पद्धति से निम्नांकित कर्म किए जाते हैं :- एकोदिष्ट श्राद्ध, पार्वण श्राद्ध, नाग बलि कर्म, नारायण बलि कर्म, त्रिपिण्डी श्राद्ध, महालय श्राद्ध पक्ष में श्राद्ध कर्म उपरोक्त कर्मों हेतु विभिन्न संप्रदायों में विभिन्न प्रचलित परिपाटियाँ चली आ रही हैं। अपनी कुल-परंपरा के अनुसार पितरों की तृप्ति हेतु श्राद्ध कर्म अवश्य करना चाहिए।कैसे करें श्राद्ध कर्म महालय श्राद्ध पक्ष में पितरों के निमित्त घर में क्या कर्म करना चाहिए। यह जिज्ञासा सहजतावश अनेक व्यक्तियों में रहती है।यदि हम किसी भी तीर्थ स्थान, किसी भी पवित्र नदी, किसी भी पवित्र संगम पर नहीं जा पा रहे हैं तो निम्नांकित सरल एवं संक्षिप्त कर्म घर पर ही अवश्य कर लें :-प्रतिदिन खीर (अर्थात्‌ दूध में पकाए हुए चावल में शकर एवं सुगंधित द्रव्य जैसे इलायची केशर मिलाकर तैयार की गई सामग्री को खीर कहते हैं) बनाकर तैयार कर लें।गाय के गोबर के कंडे को जलाकर पूर्ण प्रज्वलित कर लें।उक्त प्रज्वलित कंडे को शुद्ध स्थान में किसी बर्तन में रखकर, खीर से तीन आहुति दे दें।इसके नजदीक (पास में ही) जल का भरा हुआ एक गिलास रख दें अथवा लोटा रख दें।इस द्रव्य को अगले दिन किसी वृक्ष की जड़ में डाल दें।भोजन में से सर्वप्रथम गाय, काले कुत्ते और कौए के लिए ग्रास अलग से निकालकर उन्हें खिला दें।इसके पश्चात ब्राह्मण को भोजन कराएँ फिर स्वयं भोजन ग्रहण करें।पश्चात ब्राह्मणों को यथायोग्य दक्षिणा दें।

ग्रहों के नकारात्मक प्रभाव और निवारण के सरल उपाय ......!!!!

ज्योतिष अर्थात ज्योति + इश अर्थात इश की ज्योति अर्थात इश के नेत्र जिनसे इश इस श्रृष्टि का संचार व नियंत्रण करते है | ये आज का अध्युनिक विज्ञानं भी मानता है के हर ग्रह की हर जीव की हर प्राणी की हर अणु की (atom) अपनी एक निश्चित नकारात्मक व सकारात्मक उर्जा होती है | अगर हम उस उर्जा का सही संतुलन अपने जीवन में बना ले तो वही ईश्वर की प्राप्ति का सच्चा साधन है | यहाँ हम चर्चा करेंगे ग्रहों के नकारात्मक प्रभाव की और उससे कैसे दूर कर के हम अपने जीवन को सफल व सुफल कर सकते है | ज्योतिष सिद्धांत के अनुसार संक्षिप्त में ग्रह दोष से उत्पन्न रोग और उसके निवारण तथा किस ग्रह के क्या नकारात्मक प्रभाव है और साथ ही उक्त ग्रहदोष से मुक्ति हेतु अचूक उपाय |

1. सूर्य : सूर्य पिता, आत्मा समाज में मान, सम्मान, यश, कीर्ति, प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा का करक होता है | इसकी राशि है सिंह | कुंडली में सूर्य के अशुभ होने पर पेट, आँख, हृदय का रोग हो सकता है साथ ही सरकारी कार्य में बाधा उत्पन्न होती है। इसके लक्षण यह है कि मुँह में बार-बार बलगम इकट्ठा हो जाता है, सामाजिक हानि, अपयश, मनं का दुखी या असंतुस्ट होना, पिता से विवाद या वैचारिक मतभेद सूर्य के पीड़ित होने के सूचक है |

उपाय : ऐसे में भगवान राम की आराधना करे | आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करे, सूर्य को आर्घ्य दे, गायत्री मंत्र का जाप करे | ताँबा, गेहूँ एवं गुड का दान करें। प्रत्येक कार्य का प्रारंभ मीठा खाकर करें। ताबें के एक टुकड़े को काटकर उसके दो भाग करें। एक को पानी में बहा दें तथा दूसरे को जीवन भर साथ रखें। ॐ रं रवये नमः या ॐ घृणी सूर्याय नमः १०८ बार (१ माला) जाप करे|

2. चंद्र : चन्द्रमा माँ का सूचक है और मनं का करक है |शास्त्र कहता है की "चंद्रमा मनसो जात:" | इसकी कर्क राशि है | कुंडली में चंद्र अशुभ होने पर। माता को किसी भी प्रकार का कष्ट या स्वास्थ्य को खतरा होता है, दूध देने वाले पशु की मृत्यु हो जाती है। स्मरण शक्ति कमजोर हो जाती है। घर में पानी की कमी आ जाती है या नलकूप, कुएँ आदि सूख जाते हैं मानसिक तनाव,मन में घबराहट,तरह तरह की शंका मनं में आती है औरमनं में अनिश्चित भय व शंका रहती है और सर्दी बनी रहती है। व्यक्ति के मन में आत्महत्या करने के विचार बार-बार आते रहते हैं।

उपाय : सोमवार का व्रत करना, माता की सेवा करना, शिव की आराधना करना, मोती धारण करना, दो मोती या दो चाँदी का टुकड़ा लेकर एक टुकड़ा पानी में बहा दें तथा दूसरे को अपने पास रखें। कुंडली के छठवें भाव में चंद्र हो तो दूध या पानी का दान करना मना है। यदि चंद्र बारहवाँ हो तो धर्मात्मा या साधु को भोजन न कराएँ और ना ही दूध पिलाएँ। सोमवार को सफ़ेद वास्तु जैसे दही,चीनी, चावल,सफ़ेद वस्त्र, १ जोड़ा जनेऊ,दक्षिणा के साथ दान करना और ॐ सोम सोमाय नमः का १०८ बार नित्य जाप करना श्रेयस्कर होता है |

3. मंगल : मंगल सेना पति होता है,भाई का भी द्योतक और रक्त का भी करक माना गया है | इसकी मेष और वृश्चिक राशि है |कुंडली में मंगल के अशुभ होने पर भाई, पटीदारो से विवाद, रक्त सम्बन्धी समस्या, नेत्र रोग, उच्च रक्तचाप, क्रोधित होना, उत्तेजित होना, वात रोग और गठिया हो जाता है। रक्त की कमी या खराबी वाला रोग हो जाता। व्यक्ति क्रोधी स्वभाव का हो जाता है। मान्यता यह भी है कि बच्चे जन्म होकर मर जाते हैं।

उपाय : ताँबा, गेहूँ एवं गुड,लाल कपडा,माचिस का दान करें। तंदूर की मीठी रोटी दान करें। बहते पानी में रेवड़ी व बताशा बहाएँ, मसूर की दाल दान में दें। हनुमद आराधना करना,हनुमान जी को चोला अर्पित करना,हनुमान मंदिर में ध्वजा दान करना, बंदरो को चने खिलाना,हनुमान चालीसा,बजरंग बाण,हनुमानाष्टक,सुंदरकांड का पाठ और ॐ अं अंगारकाय नमः का १०८ बार नित्य जाप करना श्रेयस्कर होता है |

4. बुध : बुध व्यापार व स्वास्थ्य का करक माना गया है | यह मिथुन और कन्या राशि का स्वामी है | बुध वाक् कला का भी द्योतक है | विद्या और बुद्धि का सूचक है | कुंडली में बुध की अशुभता पर दाँत कमजोर हो जाते हैं। सूँघने की शक्ति कम हो जाती है। गुप्त रोग हो सकता है। व्यक्ति वाक् क्षमता भी जाती रहती है। नौकरी और व्यवसाय में धोखा और नुक्सान हो सकता है।

उपाय : भगवान गणेश व माँ दुर्गा की आराधना करे | गौ सेवा करे | काले कुत्ते को इमरती देना लाभकारी होता है | नाक छिदवाएँ। ताबें के प्लेट में छेद करके बहते पानी में बहाएँ। अपने भोजन में से एक हिस्सा गाय को, एक हिस्सा कुत्तों को और एक हिस्सा कौवे को दें, या अपने हाथ से गाय को हरा चारा, हरा साग खिलाये। उड़दकी दाल का सेवन करे व दान करे | बालिकाओं को भोजन कराएँ। किन्नेरो को हरी साडी, सुहाग सामग्री दान देना भी बहुत चमत्कारी है | ॐ बुं बुद्धाय नमः का १०८ बार नित्य जाप करना श्रेयस्कर होता है आथवा गणेशअथर्वशीर्ष का पाठ करे | पन्ना धारण करे या हरे वस्त्र धारण करे यदि संभव न हो तो हरा रुमाल साथ रक्खे |

5. गुरु : वृहस्पति की भी दो राशि है धनु और मीन | कुंडली में गुरु के अशुभ प्रभाव में आने पर सिर के बाल झड़ने लगते हैं। परिवार में बिना बात तनाव, कलह - क्लेश का माहोल होता है | सोना खो जाता या चोरी हो जाता है। आर्थिक नुक्सान या धन का अचानक व्यय,खर्च सम्हलता नहीं, शिक्षा में बाधा आती है। अपयश झेलना पड़ता है। वाणी पर सयम नहीं रहता |

उपाय : ब्रह्मण का यथोचित सामान करे | माथे या नाभी पर केसर का तिलक लगाएँ। कलाई में पीला रेशमी धागा बांधे | संभव हो तो पुखराज धारण करे अन्यथा पीले वस्त्र या हल्दी की कड़ी गांड साथ रक्खे | कोई भी अच्छा कार्य करने के पूर्व अपना नाक साफ करें। दान में हल्दी, दाल, पीतल का पत्र, कोई धार्मिक पुस्तक, १ जोड़ा जनेऊ, पीले वस्त्र, केला, केसर,पीले मिस्ठान, दक्षिणा आदि देवें। विष्णु आराधना करे | ॐ व्री वृहस्पतये नमः का १०८ बार नित्य जाप करना श्रेयस्कर होता है |

6. शुक्र : शुक्र भी दो राशिओं का स्वामी है, वृषभ और तुला | शुक्र तरुण है, किशोरावस्था का सूचक है, मौज मस्ती,घूमना फिरना,दोस्त मित्र इसके प्रमुख लक्षण है | कुंडली में शुक्र के अशुभ प्रभाव में होने पर मनं में चंचलता रहती है, एकाग्रता नहीं हो पाती | खान पान में अरुचि, भोग विलास में रूचि और धन का नाश होता है | अँगूठे का रोग हो जाता है। अँगूठे में दर्द बना रहता है। चलते समय अगूँठे को चोट पहुँच सकती है। चर्म रोग हो जाता है। स्वप्न दोष की श‍िकायत रहती है।

उपाय : माँ लक्ष्मी की सेवा आराधना करे | श्री सूक्त का पाठ करे | खोये के मिस्ठान व मिश्री का भोग लगाये | ब्रह्मण ब्रह्मणि की सेवा करे | स्वयं के भोजन में से गाय को प्रतिदिन कुछ हिस्सा अवश्य दें। कन्या भोजन कराये | ज्वार दान करें। गरीब बच्चो व विद्यार्थिओं में अध्यन सामग्री का वितरण करे | नि:सहाय, निराश्रय के पालन-पोषण का जिम्मा ले सकते हैं। अन्न का दान करे | ॐ सुं शुक्राय नमः का १०८ बार नित्य जाप करना भी लाभकारी सिद्ध होता है |

7. शनि : शनि की गति धीमी है | इसके दूषित होने पर अच्छे से अच्छे काम में गतिहीनता आ जाती है | कुंडली में शनि के अशुभ प्रभाव में होने पर मकान या मकान का हिस्सा गिर जाता या क्षतिग्रस्त हो जाता है। अंगों के बाल झड़ जाते हैं। शनिदेव की भी दो राशिया है, मकर और कुम्भ | शारीर में विशेषकर निचले हिस्से में ( कमर से नीचे ) हड्डी या स्नायुतंत्र से सम्बंधित रोग लग जाते है | वाहन से हानि या क्षति होती है | काले धन या संपत्ति का नाश हो जाता है। अचानक आग लग सकती है या दुर्घटना हो सकती है।

उपाय : हनुमद आराधना करना, हनुमान जी को चोला अर्पित करना, हनुमान मंदिर में ध्वजा दान करना, बंदरो को चने खिलाना, हनुमान चालीसा, बजरंग बाण, हनुमानाष्टक, सुंदरकांड का पाठ और ॐ हन हनुमते नमः का १०८ बार नित्य जाप करना श्रेयस्कर होता है | नाव की कील या काले घोड़े की नाल धारण करे | यदि कुंडली में शनि लग्न में हो तो भिखारी को ताँबे का सिक्का या बर्तन कभी न दें यदि देंगे तो पुत्र को कष्ट होगा। यदि शनि आयु भाव में स्थित हो तो धर्मशाला आदि न बनवाएँ।कौवे को प्रतिदिन रोटी खिलाएँ। तेल में अपना मुख देख वह तेल दान कर दें (छाया दान करे ) । लोहा, काली उड़द, कोयला, तिल, जौ, काले वस्त्र, चमड़ा, काला सरसों आदि दान दें।8. राहु : मानसिक तनाव, आर्थिक नुक्सान,स्वयं को ले कर ग़लतफहमी,आपसी तालमेल में कमी, बात बात पर आपा खोना, वाणी का कठोर होना व आप्शब्द बोलना, व कुंडली में राहु के अशुभ होने पर हाथ के नाखून अपने आप टूटने लगते हैं। राजक्ष्यमा रोग के लक्षण प्रगट होते हैं। वाहन दुर्घटना,उदर कस्ट, मस्तिस्क में पीड़ा आथवा दर्द रहना, भोजन में बाल दिखना, अपयश की प्राप्ति, सम्बन्ध ख़राब होना, दिमागी संतुलन ठीक नहीं रहता है, शत्रुओं से मुश्किलें बढ़ने की संभावना रहती है। जल स्थान में कोई न कोई समस्या आना आदि |

उपाय : गोमेद धारण करे | दुर्गा, शिव व हनुमान की आराधना करे | तिल, जौ किसी हनुमान मंदिर में या किसी यज्ञ स्थान पर दान करे | जौ या अनाज को दूध में धोकर बहते पानी में बहाएँ, कोयले को पानी में बहाएँ, मूली दान में देवें, भंगी को शराब, माँस दान में दें। सिर में चोटी बाँधकर रखें। सोते समय सर के पास किसी पत्र में जल भर कर रक्खे और सुबह किसी पेड़ में दाल दे,यह प्रयोग 43 दिन करे | इसके साथ हनुमान चालीसा, बजरंग बाण, हनुमानाष्टक, हनुमान बाहुक, सुंदरकांड का पाठ और ॐ रं राहवे नमः का १०८ बार नित्य जाप करना लाभकारी होता है |9. केतु : कुंडली में केतु के अशुभ प्रभाव में होने पर चर्म रोग, मानसिक तनाव, आर्थिक नुक्सान,स्वयं को ले कर ग़लतफहमी, आपसी तालमेल में कमी, बात बात पर आपा खोना, वाणी का कठोर होना व आप्शब्द बोलना, जोड़ों का रोग या मूत्र एवं किडनी संबंधी रोग हो जाता है। संतान को पीड़ा होती है। वाहन दुर्घटना,उदर कस्ट, मस्तिस्क में पीड़ा आथवा दर्द रहना, अपयश की प्राप्ति, सम्बन्ध ख़राब होना, दिमागी संतुलन ठीक नहीं रहता है, शत्रुओं से मुश्किलें बढ़ने की संभावना रहती है।

उपाय : दुर्गा, शिव व हनुमान की आराधना करे | तिल, जौ किसी हनुमान मंदिर में या किसी यज्ञ स्थान पर दान करे | कान छिदवाएँ। सोते समय सर के पास किसी पत्र में जल भर कर रक्खे और सुबह किसी पेड़ में दाल दे,यह प्रयोग 43 दिन करे | इसके साथ हनुमान चालीसा, बजरंग बाण, हनुमानाष्टक, हनुमान बाहुक, सुंदरकांड का पाठ और ॐ कें केतवे नमः का १०८ बार नित्य जाप करना लाभकारी होता है | अपने खाने में से कुत्ते,कौव्वे को हिस्सा दें। तिल व कपिला गाय दान में दें। पक्षिओं को बाजरा दे | चिटिओं के लिए भोजन की व्यस्था करना अति महत्व्यपूर्ण है |

कभी भी किसी भी उपाय को 43 दिन करना चहिये तब ही फल प्राप्ति संभव होती है। मंत्रो के जाप के लिए रुद्राक्ष की माला सबसे उचित मानी गई है | इन उपायों का गोचरवश प्रयोग करके कुण्डली में अशुभ प्रभाव में स्थित ग्रहों को शुभ प्रभाव में लाया जा सकता है। सम्बंधित ग्रह के देवता की आराधना और उनके जाप, दान उनकी होरा, उनके नक्षत्र में अत्यधिक लाभप्रद होते है |